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________________ कर्मनोकर्मभावेषु, जागरूकेष्वपि प्रभुः । तमसानावृतः साक्षी, स्फुरति ज्योतिषा स्वयम् ॥५॥ जागरूक कर्म तथा नोकर्म जनित भावों के सम्बन्ध में अज्ञानअंधकार से अनावृत्त स्वयं साक्षी स्वरूप प्रभु प्रात्म-ज्योति के द्वारा स्फुरायमान होता है। (५) परमज्योतिषः स्पर्शादपरं ज्योतिरेधते । यथा सूर्यकरस्पर्शात्, सूर्यकान्तस्थितोऽनलः ॥६॥ सूर्य की किरणों के स्पर्श से सूर्यकान्तमरिण में निहित अग्नि की जिस प्रकार वृद्धि होती है, उसी प्रकार से परम ज्योति के स्पर्श से अपरम ज्योति की वृद्धि होती है । (६) पश्यन्नपरमं ज्योतिविवेकाद्रः पतत्यधः। परमं ज्योतिरन्विच्छन्नाऽविवेके निमज्जति ॥७॥ अपरम ज्योति का दर्शक विवेक रूपी पर्वत से नीचे गिरता है, परम ज्योति का अभिलाषी अविवेक में नहीं डूबता । (७) तस्मै विश्वप्रकाशाय, परमज्योतिषे नमः। केवलं नैव तमसः, प्रकाशादपि यत्परम् ॥८॥ विश्व का प्रकाश करने वाली उस परम ज्योति को नमस्कार है कि जो केवल अंधकार से ही परे नहीं है, किन्तु प्रकाश से भी परे है। (८) ज्ञानदर्शनसम्यक्त्व -चारित्रसुखवीर्यभूः । परमात्मप्रकाशो मे, सर्वोत्तमकलामयः ।।६।। ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, चारित्र, सुख और वीर्य की भूमि तुल्य मेरा परमात्म प्रकाश सर्वोत्तम कलामय है। (8) यां विना निष्फलाः सर्वाः, कला गुणबलाधिकाः। प्रात्मधामकलामेकां, तां वयं समुपास्महे ॥१०।। गण एवं बल से अधिक समस्त कलायें जिसके बिना निष्फल हैं, उस आत्म-ज्योति स्वरूप एक ही कला की हम उपासना करते हैं। (१०) जिन भक्ति ] [ 61 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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