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________________ न्यायाचार्य-न्यायविशारद-महोपाध्याय श्रीयशोविजय-रचिता * परमज्योतिः पञ्चविंशतिका * ऐन्द्र तत्परमं ज्योतिरुपाधिरहितं स्तुम: । उदिते स्युर्यदंशेऽपि, सन्निधौ निधयो नव ॥१॥ कर्म-उपाधि-रहित आत्मा के सम्बन्ध में हम उस परम ज्योति की स्तुति करते हैं जिसके अंश मात्र के उदय से नौ निधियाँ प्रकट होती हैं । (१) प्रभा चन्द्राकंभादीनां, मितक्षेत्रप्रकाशिका । प्रात्मानस्तु परं ज्योति -र्लोकालोकप्रकाशम् ॥२॥ चांद, सूर्य एवं नक्षत्रों आदि की प्रभा सीमित क्षेत्र को प्रकाशित करने वाली है, जबकि प्रात्मा की परम ज्योति लोक-अलोक को प्रकाशित करने वाली है। (२) निरालम्बं निराकारं, निर्विकल्पं निरामयम् । प्रात्मनः परमं ज्योति, -निरुपाधि-निरंजनम् ॥३॥ आत्मा की परम ज्योति पालम्बन रहित, प्राकार रहित, विकल्प रहित, रोग रहित, उपाधि रहित एवं मल रहित है। (३) दीपादिपुद्गलापेक्ष, समलं ज्योतिरक्षजम् । निर्मलं केवलं ज्योति -निरपेक्षमतीन्द्रियम् ॥४॥ इन्द्रियों से उत्पन्न ज्योति दीपक आदि पुद्गलों की अपेक्षा रखने वाली और मल युक्त है। अतीन्द्रिय केवल ज्योति निरपेक्ष एवं निर्मल है। (४) 60 ] [ जिन भक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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