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________________ हे जिनेन्द्र ! उत्कृष्ट भक्ति से स्तुति किये गये अन्य देव अपनी स्तुति करने वाले अन्यों को किसी भी प्रकार से मुक्ति प्रदान नहीं करते यह उचित ही है, क्योंकि अमत के घड़ों से भी सिंचित नीम के वृक्षों से कदापि आम के फल प्राप्त नहीं होते। (३१) भवजलनिधिमध्यान्नाथ ! निस्तार्य कार्यः, शिवनगरकुटुम्बी निर्गुणोऽपि त्वयाऽहम् । न हि गुरणमगुरणं वा संश्रितानां महान्तो, निरुपमकरुणार्द्राः सर्वथा चिन्तयन्ति ॥३२॥ हे नाथ ! मुझ गुणहीन को भी आपको संसार-सागर के मध्य से उद्धार करके मोक्ष-नगर का कुटम्बी करना ही चाहिए; क्योंकि अद्वितीय दया से आर्द्र महापुरुष अपनी शरण में आये हुओं के गुण और अवगुणों की अोर तनिक भी ध्यान नहीं देते हैं। (३२) प्राप्तस्वं बहुभिः शुभैस्त्रिजगतश्चूडामरिणर्देवता, निर्वाणप्रतिभूरसावपि गुरुः श्री हेमचन्द्रप्रभुः। तन्नातः परमस्ति वस्तु किमपि स्वामिन् ! यदभ्यर्थये, किन्तु त्वद्वचनादरःप्रतिभवं स्ताद्वर्धमानो मम ॥३३॥ अनेक पुण्यों से त्रिलोक के मुकुटमणि तुल्य एवं मोक्ष के साक्षी आप देव एवं ये श्री हेमचन्द्र प्रभु गुरु प्राप्त हुए हैं। अतः हे स्वामी ! इनसे उत्कृष्ट कोई अन्य वस्तु नहीं है कि जिसकी मैं आपसे याचना करू; किन्तु प्रत्येक भव में आपके वचनों के प्रति मेरे मानस में सम्मान की वद्धि होती रहे ऐसी मैं अभ्यर्थना करता हूँ। (३३) जिन भक्ति ] [ 59 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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