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हे स्वामी ! जिस कारण से आज आपके दर्शन हुए, उस कारण से आज मैं अमृत के सागर में निमग्न हो गया हूँ। जिसके कर-कमल में चिन्तामणि रत्न स्फुरायमान हुआ है, ऐसे पुरुष के लिये कोई भी वस्तु असाध्य नहीं है । (२७)
त्वमेव संसारमहाम्बुराशौ,
निमज्जतो मे जिन ! यानपात्रम् । त्वमेव मे श्रेष्ठसुखैकधाम,
विमुक्तिरामाघटनाभिरामः॥२८॥ हे जिनेश्वर ! संसार रूपी महासागर में डूबते हुए मेरे लिए आप ही जहाज तुल्य हैं और आप ही उत्तमोत्तम सुख के अद्वितीय धाम हैं तथा मुक्ति रूपी नारी का संयोग कराने में आप ही अभिराम हैं, मनोहर हैं। (२८)
चिन्तामणिस्तस्य जिनेश ! पाणी,
कल्पद्रुमस्तस्य गृहाङ्गणस्थः । नमस्कतो येन सदाऽपि भक्त्या,
- स्तोत्रैः स्तुतो दामभिरचितोऽसि ॥२६॥ - हे जिनेश्वर ! जिसने भक्ति पूर्वक नित्य आपको नमस्कार किया है, स्तवनों के द्वारा आपकी स्तुति की है और पुष्प की मालाओं के द्वारा आपकी पूजा को है; उसके हाथ में चिन्तामणि रत्न प्राप्त हुआ है और उसके प्राङ्गण में कल्पवृक्ष फला है । (२६)
निमील्य नेत्रे मनसः स्थिरत्वं,
विधाय यावज्जिन ! चिन्तयामि । त्वमेव तावन्न परोऽस्ति देवो,
निःशेषकर्मक्षयहेतुरन ॥३०॥ हे भगवन् ! जब मैं अपने नेत्र बंद करके एवं मन को स्थिर करके चिन्तन करता हूँ तब मुझे स्पष्ट रूप से समझ में आता है कि इस जगत में सम्पूर्ण कर्म-क्षय के कारणभूत आप ही हैं, अन्य कोई नहीं है । (३०)
भक्त्या स्तुता अपि परे परया परेभ्यो,
मुक्ति जिनेन्द्र ! ददते न कथञ्चनापि । सिक्ताः सुधारसघटैरपि निम्बवृक्षा,
विधारणयन्ति न हि चतफलं कदाचित् ॥३१॥
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[ जिन भक्ति
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