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हे ईश ! ये काम आदि, समस्त देव-दानवों के विजेता हैं। इन्हें आपने सर्वथा जीत लिया है, परन्तु आपको जीतने में असमर्थ वे काम आदि मानों क्रोध से ही मुझ सेवक का निर्दयता से संहार करते हैं, यह खेद की बात है। (२३)
सामर्थ्यमेतद् भवतोऽस्ति सिद्धि,
सत्त्वानशेषानपि नेतुमोश ! क्रियाविहीनं भवदंहिलीनं
दीनं न कि रक्षसि मां शरण्य ॥२४॥ हे ईश ! समस्त प्राणियों को मुक्ति में ले जाने का आपका सामर्थ्य है, तो फिर मुझ क्रियाविहीन, दीन एवं आपके चरणों में लीन को आप क्यों नहीं बचाते ? (२४)
त्वत्पादपद्मद्वितयं जिनेन्द्र !
स्फुरत्यजत्र हृदि यस्य पुसः । विश्वजयो श्रीरपि ननमेति,
तत्राश्रयार्थं सहचारिणीव ।।२५।। हे जिनेन्द्र ! जिस पुरुष के अन्तःकरण में आपके चरण-कमल-युगल सदा स्फुरायमान हैं, वहाँ निश्चय ही तीनों लोकों की लक्ष्मी सहचारिणी की तरह आश्रय ग्रहण करने के लिए आती है। (२५)
अहं प्रभो ! निर्गुणचक्रवर्ती,
करो दुरात्मा हतकः सपाप्मा । ही दुःखराशौ भववारिराशी,
यस्मान्निमग्नोऽस्मि भवद्विमुक्तः ॥२६॥ हे प्रभो ! मैं निर्गुणियों में चक्रवर्ती हूँ, क्रूर हूँ, दुरात्मा हूँ, हिंसक हूँ और पापी हूँ; जिस कारण से मैं आपसे अलग होकर दुःख की खान तुल्य भव-सागर में डूब गया हूँ, यह खेद की बात है । (२६)
स्वामिनिमग्नोऽस्मि सुधासमुद्रे,
यन्नेत्रपात्रातिथिरद्य मेऽभूः । चिन्तामरणौ स्फूर्जति पाणिपझे,
पुसामसाध्यो न हि कश्चिदर्थः ॥२७॥
जिन भक्ति ]
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