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भावना से मूढ़ बने मेरे लिए कोई भी कार्य प्रकरणोय नहीं रहा, यह खेद की बात है । (१६)
म्लेच्छ शंसैरतिराक्षसैश्च,
"विडम्बितोऽमीभिरनेकशोऽहम् । प्राप्त स्त्विदानी भुवनैकवीर !
त्रायस्व मां यत्तव पादलीनम् ॥२०॥ म्लेच्छ, निर्दयी तथा राक्षसों को भी मात करने वाले इन काम-क्रोध ग्रादि के द्वारा मैं अनेक बार दुःख प्राप्त कर चुका हूँ। हे लोक में वीर परमात्मा ! अब मैंने आपको प्राप्त किया है। मैं आपके चरणों में लीन हूँ। आप मेरी रक्षा करें। (२०)
हित्वा स्वदेहेऽपि ममत्वबुद्धि,
श्रद्धापवित्रीकृतसद्विवेकः । मुक्तान्यसङ्गः समशत्रुमित्रः,
स्वामिन् ! कदा संयममातनिष्ये ॥२१॥ हे स्वामी ! अपने देह के प्रति भी ममत्व का त्याग करके, श्रद्धा सहित पवित्र अन्तःकरण युक्त होकर, हृदय में शुद्ध विवेक-हेय आदि का विभाग करके, अन्य सभी की संगति का परित्याग करके तथा शत्रु एवं मित्र को समान समझ कर मैं कब संयम ग्रहण कर सकँगा ? (२१)
त्वमेव देवो मम वीतराग !
धर्मो भवशितधर्म एव । इति स्वरूपं परिभाव्य तस्मान्,
नोपेक्षणीयो भवति स्वभृत्यः ॥२२॥ हे वीतराग ! आप ही मेरे देव हैं और आप द्वारा प्ररूपित धर्म ही मेरा धर्म है। इस प्रकार मेरे स्वरूप का विचार करके आपको मुझ सेवक की ऐसी उपेक्षा करना उचित नहीं है। (२२)
जिता जिताशेषसुरासुराद्याः,
कामादयः कामममी त्वयेश ! त्वां प्रत्यशक्तास्तव सेवकं तु,
निघ्नन्ति ही मां परुषं रुपैव ॥२३॥
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[ जिन भक्ति
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