________________
समताऽमतमग्नानां समाधिधतपाप्मना ।
रत्नत्रयमयं शुद्ध, परं ज्योतिः प्रकाशते ।।२२।। समता रूपी अमृत में निमग्न एवं समाधिपूर्वक पाप-कर्मों के नाशक महात्माओं को रत्नत्रयमय शुद्ध परम ज्योति प्रकाशमय करती है। (२२)
तीर्थकरा गणधरा, लब्धिसिद्धाश्च साधवः ।
संजातास्त्रिजगद्वन्द्याः, परं ज्योतिष्प्रकाशतः ॥२३॥ तीर्थंकर, गणधर एवं लब्धि-सिद्ध साधु पुरुष परम ज्योति के प्रकाश से त्रिलोक-वंदनीय हुए हैं। (२३)
न रागं नापि च द्वषं, विषयेष यदा व्रजेत् ।
औदासीन्य निमग्नात्मा, तदाप्नोति परं महः ॥२४॥ उदासीन भाव में निमग्न अात्मायें जब विषयों में राग अथवा द्वष नहीं करती, तब वे परम ज्योति को प्राप्त करती हैं। (२४)
विज्ञाय परमज्योति - मर्माहात्म्यमिदमुत्तमम ।
यः स्थैर्य याति लभते, स यशोविजयश्रियम् ॥२५॥ परम ज्योति का यह उत्तम माहात्म्य समझ कर जो स्थिरता प्राप्त करते हैं, वे यश एवं विजय की लक्ष्मी प्राप्त करते हैं, अथवा श्रीयशोविजय की लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं । (२५)
64 ]
[ जिन भक्ति
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org