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________________ प्रतिक्षणोत्पादविनाशयोगि स्थिरैकमध्यक्षमपीक्षमाणः। जिन ! त्वदाज्ञामवमन्यते यः, स वातकी नाथ ! पिशाचकी वा ॥२१॥ हे नाथ ! प्रत्येक क्षण उत्पन्न होने वाले, नष्ट होने वाले तथा स्थिर रहने वाले पदार्थों को देख कर भी हे जिन ! जो लोग आपकी आज्ञा की अवहेलना करते हैं वे वायु अथवा पिशाच से ग्रस्त हैं । (२१) अनन्तधर्मात्मकमेव तत्त्व __ मतोऽन्यथा सत्त्वमसूपपादम्। इति प्रमाणान्यपि ते कुवादि कुरङ्गसंत्रासनसिंहनादाः ॥२२॥ प्रत्येक पदार्थ में अनन्त धर्म हैं- यह नहीं मानने से वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती। इस प्रकार आपके प्रमाण-भूत वाक्य कुवादी रूपी मृगों में भय (त्रास) उत्पन्न करने के लिये सिंह की गर्जना के समान हैं । (२२) अपर्ययं वस्तु समस्यमान मद्रव्यमेतच्च विविच्यमानम् । प्रादेशभेदोदितसप्तभङ्ग मदीदशस्त्वं बुधरूपवेद्यम् ॥२३॥ यदि वस्तु का सामान्यतया कथन किया जाये तो प्रत्येक वस्तु पर्याय रहित है। यदि वस्तु की विस्तारपूर्वक प्ररूपणा की जाये तो प्रत्येक वस्तु द्रव्य रहित है। इस प्रकार सकलादेश और विकलादेश के भेद से पंडित लोग समझ सकें वैसे सात भंगों की आपने प्ररूपणा की है । (२३) उपाधिभेदोपहितं विरुद्ध, नार्थेष्वसत्त्वं सदवाच्यते च । इत्यप्रबुध्यैव विरोधभीता, जडास्तदेकान्तहताः पतन्ति ।।२४।। प्रत्येक पदार्थ में अस्तित्व, नास्तित्व एवं प्रवक्तव्यत्व रूप परस्पर विरुद्ध धर्मों का प्रतिपादन अपेक्षा भेद से विरुद्ध नहीं है। विरोध से भयभीत बने एकान्तवादी मुर्ख लोग इस सिद्धान्त को नहीं समझने के कारण ही न्याय-मार्ग से पतित होते हैं। (२४) जिन भक्ति ] [ 47 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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