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शून्यता का सिद्धान्त, कृतान्त की तरह कुपित होता है । हे भगवन् ! आपके मत के ईर्षालु मनुष्यों ने कुमति ज्ञान रूपी नेत्रों से जो कुछ जाना है, वह मिथ्या होने के कारण उपहासास्पद है। (१७)
कृतप्रणाशाकृतकर्मभोग
__ भवप्रमोक्षस्मृतिभङ्गदोषान् । उपेक्ष्य साक्षात् क्षरणभङ्गमिच्छ
नहो महासाहसिकः परस्ते ॥१८॥ आपके प्रतिपक्षी क्षणिकवादी, बौद्ध क्षणिकवाद को स्वीकार करके अकृतकर्म-भोगदोष, कृतप्ररणाश-दोष, भव-भंग-दोष, मुक्ति-भंग-दोष और स्मरण-भंग-दोष आदि अनुभव सिद्ध दोषों की उपेक्षा करके अपना मत स्थापित करने के लिये अत्यन्त साहस करते हैं, यह सचमुच आश्चर्य है । (१८)
सा वासना सा क्षरणसन्ततिश्च,
नाभेदभेदानुभयैर्धटेते। ततस्तटादशिशकुन्तपोत
न्यायात्त्वदुक्तानि परे श्रयन्तु ॥१६॥ वासना एवं क्षण सन्तति, परस्पर भिन्न, अभिन्न एवं अनुभव, इन तीन भेदों में से किसी भी भेद से सिद्ध नहीं होती। जिस प्रकार समुद्र में जहाज से उड़ा पक्षी समुद्र का किनारा नहीं दिखाई पड़ने से पुनः जहाज पर ही आ बैठता है, उसी प्रकार से उपायान्तर नहीं होने से बौद्ध लोग अन्त में आपके ही सिद्धान्त का आश्रय लेते हैं। (१६)
विनानुमानेन पराभिसन्धि
मसंविदानस्य तु नास्तिकस्य । न साम्प्रतं वक्तुमपि क्व चेष्टा,
क्व दृष्टमात्रं च हहा ! प्रमादः ॥२०॥ बिना अनुमान के अन्य व्यक्तियों का अभिप्राय नहीं समझ सकने वाले चार्वाक लोगों को बोलने की चेष्टा करना उचित नहीं है । कहां चेष्टा
और कहां प्रत्यक्ष ? इन दोनों के मध्य अत्यन्त अन्तर है । इसे नहीं समझने वालों का कैसा प्रमाद है ? (२०)
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[ जिन भक्ति
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