________________
स्यान्नाशि नित्यं सदृशं विरूपं,
वाच्यं न वाच्यं सदसत्तदेव । विपश्चितां नाथ ! निपीततत्त्व
सुधोद्गतोद्गारपरम्परेयम् ॥२५॥ हे विद्वान्-शिरोमणि ! प्रत्येक वस्तु किसी अपेक्षा से अनित्य है, किसी अपेक्षा से नित्य है; किसी अपेक्षा से सामान्य है, किसी अपेक्षा से विशेष है, किसी अपेक्षा से वाच्य है, किसी अपेक्षा से अवाच्य है; किसी अपेक्षा से सत् है और किसी अपेक्षा से असत् है । अनेकान्त-तत्व रूपी अमृत के पान से निकली हुई यह उद्गारों की परम्परा है। (२५)
य एव दोषाः किल नित्यवादे,
विनाशवादेऽपि समास्त एव । परस्परध्वंसिषु कण्टकेषु,
जयत्यधृष्यं जिन ! शासनं ते ॥२६॥ वस्तु को सर्वथा नित्य मानने में जो दोष आते हैं, वे ही दोष सर्वथा अनित्य मानने में भी आते हैं। जिस प्रकार एक कांटा (शूल) दूसरे कांटे का नाश करता है, उसी प्रकार से नित्यवादियों और अनित्यवादियों के पारस्परिक दूषण बता कर एक दूसरे का निराकरण करने पर भी हे जिन ! आपका अधष्य शासन बिना परिश्रम के विजय प्राप्त करता है। (२६)
नैकान्तवादे सुखदुःखभोगौ,
न पुण्यपापे न च बन्धमोक्षौ। दुर्नीतिवादव्यसनासिनैवं,
परैविलुप्तं जगदप्यशेषम् ॥२७॥ एकान्तवाद में सुख-दुःख का उपभोग घट नहीं सकता और पुण्यपाप तथा बंध-मोक्ष की व्यवस्था भी नहीं घट सकती। सचमुच, एकान्तवादी लोगों ने दुर्नयवाद में आसक्ति रूपी खङ्ग से सम्पूर्ण विश्व का नाश किया है । (२७)
सदेव सत् स्यात्सदिति त्रिधार्थो,
__मीयेत दुर्नोतिनयप्रमाणैः । यथार्थदर्शी तु नयप्रमारण
पथेन दुर्नीतिपथं त्वमास्थः ॥२८॥
48 ]
[ जिन भक्ति
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org