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________________ का ज्ञान होता है, उस प्रकार से समवाय का ज्ञान नहीं होता। यदि कोई कहे कि "तंतुओं में यह पट है' इस प्रकार के प्रत्यय से धर्म-धर्मी में समवाय का ज्ञान होता है, तो हम कहते हैं कि यह प्रत्यय स्वयं समवाय में भी होता है; और ऐसा मानने पर एक समवाय में दूसरा, दूसरे में तीसरा, इस प्रकार अनन्त समवाय मानने से अनवस्था दोष लगेगा। यदि कोई कहे कि एक समवाय को मुख्य मान कर समवाय में निहित समवायत्व को गौण रूप में स्वीकार करेंगे, तो यह कल्पना मात्र है और यह मानने में लोकविरोध भी है। (७) सतामपि स्यात् क्वचिदेव सत्ता, चैतन्यमोपाधिकमात्मनोऽन्यत् । न संविदानन्दमयी च मुक्तिः , सुसूत्रमासूत्रितमत्वदीयैः ॥८॥ सत् पदार्थों में भी सब में सत्ता नहीं होती । ज्ञान उपाधिजन्य एवं आत्मा से भिन्न है। मोक्ष ज्ञान एवं प्रानन्द स्वरूप नहीं है। इस प्रकार की मान्यताओं का प्रतिपादन करने वाले शास्त्र आपकी आज्ञा से बाहर रहने वाले लोगों के द्वारा रचित हैं, जो युक्तियुक्त नहीं हैं। (८) यत्रैव यो दृष्टगुणः स तत्र, कुम्भादिवन्निष्प्रतिपक्षमेतत । तथापि देहाद् बहिरात्मतत्त्व मतत्त्ववादोपहताः पठन्ति ॥६॥ यह निर्विवाद है कि जिस पदार्थ का गुण जिस स्थान पर दृष्टिगोचर होता है, वह पदार्थ उसी स्थान पर रहता है, जैसे जहां धड़े के रूप आदि गुण रहते हैं वहां घड़ा भी रहता है तो भी अतत्त्ववाद से उपहत कुवादी प्रात्म-तत्त्व को देह से बाहर, सर्व व्यापी कहते हैं । (६) स्वयं विवादग्नहिले वितण्डा ___ पाण्डित्यकण्डूलमुखे जनेऽस्मिन् । मायोपदेशात् परमर्मभिन्दन्, अहो ! विरक्तो मुनिरन्यदीयः ॥१०॥ यह एक आश्चर्य है कि स्वतः ही विवाद रूपी पिशाच के परवश बने तथा वितंडावाद करने की पण्डिताई से असम्बद्ध प्रलाप करने वाले जिन भक्ति ] [ 43 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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