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इस लोक में छल, जाति एवं निग्रह स्थान का उपदेश देकर दूसरों के निर्दोष हेतुनों का खण्डन करने का उपदेश देने वाले गौतम मुनि को भी विरक्त एवं कारुणिक माना जाता है । (१०)
न धर्महेतुविहितापि हिंसा, नोत्सृष्टमन्यार्थमपोद्यते च । स्वपुत्रघातान्नृपतित्व लिप्सासब्रह्मचारिस्फुरितं परेषाम् ॥ ११ ॥
वेद - विहित हिंसा धर्म का कारण नहीं है । अन्य अर्थ के लिए बताया गया उत्सर्ग अन्य अर्थ के लिए अपवाद नहीं बन सकता । फिर भी अन्य लोगों का उस प्रकार मानना, अपने पुत्र का वध करके राजा बनने की इच्छा के समान है । (११)
स्वार्थावबोधक्षम एव बोधः,
प्रकाशते नार्थकथान्यथा तु । परे परेभ्यो भयतस्तथापि,
प्रपेदिरे ज्ञानमनात्मनिष्ठम् ॥१२॥
ज्ञान स्वयं को और अन्य पदार्थों को भी जान सकता है, अन्यथा किसी भी पदार्थ का ज्ञान नहीं, हो सकता; फिर भी अन्य वादियों के भय से अन्य मतावलम्बियों ने ज्ञान को अनात्म-निष्ठ - स्वसंवेदन रहित स्वीकार किया है । (१२)
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माया सती चेद् द्वयतत्त्वसिद्धिरथासतो हन्त कुतः प्रपंच: । मायेव चेदर्थसहा च तत्कि,
माता च वन्ध्या च भवत्परेषाम् ॥१३॥
माया दोनों पदार्थों की सिद्धि यदि माया असत् है तो तीन
यदि माया सत् रूप है तो ब्रह्म एवं होती है - प्रद्वैत की सिद्धि नहीं हो सकती। लोकों के पदार्थों की उत्पत्ति नहीं हो सकती । यदि यह कहें कि माया है। और अर्थ क्रिया भी करती है, तो एक ही स्त्री माता है और वन्ध्या (बाँझ) भी है, क्या आपके विरोधियों का कथन इस प्रकार का सिद्ध नहीं होता ? (१३)
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