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स्वतोऽनुवृत्तिव्यतिवृत्तिभाजो,
भावा न भावान्तरनेयरूपाः । परात्मतत्त्वादतथात्मतत्त्वाद,
द्वयं वदन्तोऽकुशलाः स्खलन्ति ॥४॥ पदार्थ स्वभाव से ही सामान्य एवं विशेष रूप हैं। उनमें सामान्य विशेष की प्रतीति कराने के लिये पदार्थान्तर मानने की आवश्यकता नहीं है। जो अकुशलवादी पररूप एवं मिथ्यारूप, सामान्य विशेष को पदार्थ से भिन्न रूप में बताते हैं वे न्याय-मार्ग से च्युत होते हैं । (४)
प्रादीपमाव्योम समस्वभावं,
स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु । तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्य
दिति त्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापाः ॥५॥ दीपक से लगा कर आकाश तक समस्त पदार्थ नित्य अनित्य स्वभाव युक्त हैं, क्योंकि कोई भी पदार्थ स्याद्वाद की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता । ऐसी वस्तु-स्थिति में भी आपके विरोधी, दीपक आदि को सर्वथा अनित्य एवं आकाश आदि को सर्वथा नित्य मानते हैं, जो प्रलाप स्वरूप है । (५)
कर्तास्ति कश्चिद् जगतः स चैकः,
स सर्वगः स स्ववशः स नित्यः । इमाः कुहेवाकविडम्बनाः स्यु
स्तेषां न येषामनुशासकस्त्वम् ॥५॥ हे नाथ ! जगत का कोई कर्ता है, वह एक है, वह सर्वव्यापी है, वह स्वतन्त्र है और वह नित्य है। ये दुराग्रहपूर्ण विडम्बनाएँ उन्हीं के लगी हुई हैं, जिनके आप अनुशासक नहीं हैं । (६)
न धर्ममित्वमतीवभेदे,
वत्त्यास्ति चेन्न त्रितयं चकास्ति । इहेदमित्यस्ति मतिश्च वृत्तौ,
न गौणभेदोऽपि च लोकबाधः ॥७॥ धर्म एवं धर्मी को सर्वथा भिन्न मानने से उनका सम्बन्ध नहीं हो सकता। यदि कोई कहे कि समवाय सम्बन्ध से परस्पर भिन्न धर्म एवं धर्मी का सम्बन्ध होता है तो यह अनुचित है; क्योंकि जिस प्रकार धर्म और धर्मी 42 ]
[ जिन भक्ति
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