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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य रचित
* अन्ययोगव्यवच्छेद- द्वात्रिंशिका *
अनन्त विज्ञानमतीतदोष
मबाध्य सिद्धान्तममर्त्य पूज्यम् । श्रीवर्धमानं जिनमाप्त मुख्यं,
स्वयम्भुवं स्तोतुमहं यतिष्ये ॥ १ ॥
अनन्त ज्ञानी, दोष रहित, अबाध्य सिद्धान्तों से युक्त, देवताओं द्वारा पूजनीय, यथार्थ वक्ताओंों में प्रधान एवं स्वयंभू श्री वर्धमान स्वामी की स्तुति करने का मैं प्रयत्न करूंगा ( १ )
श्रयं जनो नाथ ! तव स्तवाय, गुणान्तरेभ्यः स्पृहयालुरेव । विगाहतां किन्तु यथार्थवाद
मेकं परोक्षाविधिदुविदग्धः ॥ २ ॥
हे नाथ ! परीक्षा करने में स्वयं को पण्डित मानने वाला मैं आपके अन्य गुणों के प्रति श्रद्धालु होते हुए भी आपके स्तवन के लिये आपके यथार्थवाद नामक गुण का अवगाहन करता हूँ । (२)
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गुणेष्वसूयां दधतः परेऽमी,
मा शिश्रियन्नाम भवन्तमीशम् । तथापि सम्माल्य विलोचनानि,
विचारयन्तां नयवर्त्म सत्यम् ॥३॥
हे नाथ ! यद्यपि आपके गुणों की ईर्ष्या करने वाले अन्य मनुष्य आपको स्वामी नहीं मानते, फिर भी वे सत्य न्याय मार्ग का नेत्रोन्मीलन करके विचार करें। (३)
जिन भक्ति ]
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