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________________ यत्र तत्र समये यथा तथा, योऽसि सोऽस्यभिधया यया तया । वीतदोषकलुषः स चेद्भवा नेक एव भगवन्नमोऽस्तु ते ॥३१॥ हे भगवन् ! जिस किसी शास्त्र में, जिस किसी प्रकार से और जिस किसी नाम से राग-द्वेष रहित देव का वर्णन किया गया है वह आप एक ही हैं। अतः आपको हमारा नमस्कार है । (३१) [ उपसंहारकाव्यम् ] इदं श्रद्धामात्रं तदथ परनिन्दा मृदुधियो, विगाहन्तां हन्त ! प्रकृतिपरवादव्यसनिनः । अरक्तद्विष्टानां जिनवर ! परीक्षाक्षमधिया मयं तत्त्वालोकः स्तुतिमयमुपाधि विधृतवान् ॥३२॥ ____ चाहे मृदु बुद्धि वाले मनुष्य इस स्तोत्र को श्रद्धा से रचित समझ और स्वभाव से ही पर-निन्दा के व्यसनी वादी पुरुष चाहे इसे अन्य देवों की निन्दा के लिये रचित मानें, परन्तु हे जिनवर ! परीक्षा करने में समर्थ बुद्धि वाले एवं राग-द्वेष से रहित पुरुषों को तत्त्वों को प्रकट करने वाला यह स्तोत्र स्तुति स्वरूप एवं धर्म चिन्तन में कारण स्वरूप है । (३२) 40 ] ] जिन भक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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