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________________ सुनिश्चितं मत्सरिणो जनस्य, न नाथ ! मुद्रामतिशेरते ते । माध्यस्थ्यमास्थाय परीक्षका ये, मणौ च काचे च समानुबन्धाः ॥२७॥ हे नाथ ! जो परोक्षक मध्यस्थता धारण करके कांच और मरिण में समान भाव रखते हैं वे भी, मत्सरी-मनुष्यों की मुद्रा का अतिक्रमण नहीं करते, यह सुनिश्चित है। (२७) इमां समक्ष प्रतिपक्षसाक्षिणा ___ मुदारघोषामवघोषणां ब्रवे । न वीतरागात्परमस्ति दैवतं, न चाप्यनेकान्तमते नयस्थितिः ॥२८॥ मैं प्रतिपक्षी व्यक्तियों के समक्ष यह उदार घोषणा करता हूँ कि वीतराग भगवान के अतिरिक्त अन्य कोई परम देव नहीं है और वस्तु का निरूपण करने के लिए अनेकान्तवाद के अतिरिक्त अन्य कोई नीति-मार्ग नहीं है । (२८) न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपातो, न द्वषमात्रादरुचिः परेषु । यथावदाप्तत्वपरीक्षया तु, त्वामेव वीर प्रभुमाश्रिताः स्मः ॥२६॥ हे वीर ! केवल श्रद्धा के कारण हमारा आपके प्रति पक्षपात नहीं है, और केवल द्वेष के कारण हमें अन्य देवों के प्रति शत्रुता नहीं है, किन्तु प्राप्तपन की यथार्थ रूप से परीक्षा करके ही हमने आपका आश्रय लिया है । (२६) तमःस्पृशामप्रतिभासभानं, भवन्तमप्याशु विविन्दते याः। महेम चन्द्रांशुदशावदाता स्तास्तर्कपुण्या जगदीश वाचः ॥३०॥ हे जगदीश ! अज्ञान रूपी अंधकार में भटकने वाले पुरुषों को जो वारणी आप अगोचर को बताती हैं, उस चन्द्रमा की किरणों के समान स्वच्छ एवं तर्क से पवित्र आपकी वाणी की हम पूजा करते हैं। (३०) जिन भक्ति ] [ 39 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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