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अनाद्यविद्योपनिषनिषण्ण
विशृखलैश्चापलमाचरद्भिः । अमूढलक्ष्योऽपि पराक्रिये य
त्त्वत्किङ्करः किं करवारिण देव ! ॥२३॥ हे देव ! अनादि अविद्या में रमे हुए, उच्छृखल, चपल एवं अमूढ़ लक्ष्य से युक्त पुरुष भी इस तेरे सेवक के द्वारा उचित मार्ग पर नहीं लाये जा सकते तो अब मैं क्या करूँ ? (२३)
विमुक्तवैरव्यसनानुबन्धाः,
श्रयन्ति यां शाश्वतवैरिणोऽपि । परैरगम्यां तव योगिनाथ !
तां देशना भूमिमुपाश्रयेऽहम् ॥२४॥ हे योगियों के नाथ ! स्वभाव से ही वैरी प्राणी भी शत्रुता छोड़ कर दूसरों के द्वारा अगम्य आपके जिस समवसरण का प्राश्रय लेते हैं, उस समवसरण (देशना) भूमि का मैं भी आश्रय ग्रहण करता हूँ। (२४)
मदेन मानेन मनोभवेन,
क्रोधेन लोभेन च सम्मदेन । पराजितानां प्रसभं सुराणां,
वृथैव साम्राज्यरुजा परेषाम् ॥२५।। हे प्रभु ! मद, मान, काम, क्रोध, लोभ एवं राग से अत्यन्त पराजित अन्य देवों का साम्राज्य - रोग (प्रभुता की व्यथा) सर्वथा व्यर्थ है। (२५)
स्वकण्ठपीठे कठिनं कुठारं,
परे किरन्तः प्रलपन्तु किंचित् । मनीषिणां तु त्वयि वीतराग !
न रागमात्रेण मनोऽनुरक्तम् ॥२६॥ वादी लोग अपने गले में तीक्षण कुल्हाड़ी का प्रहार करते हुए कुछ भी कहें, परन्तु हे वीतराग ! बुद्धिमानों का चित्त आपके प्रति केवल राग से ही अनुरक्त हो, ऐसी बात नहीं है । (२६) 38 ]
[ जिन भक्ति
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