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________________ जगन्ति भिन्दन्तु सजन्तु वा पुन यथा तथा वा पतयः प्रवादिनाम । त्वदेकनिष्ठे भगवन् भवक्षय क्षमोपदेशे तु परं तपस्विनः ॥१६॥ हे भगवन् ! अन्य मत वाले देव चाहे जिस प्रकार से जगत् का प्रलय करें अथवा जगत् की उत्पत्ति करें, परन्तु भव-भ्रमण का नाश करने में समर्थ उपदेश देने में, आपकी तुलना में वे बिचारे रंक हैं । (१९) वपुश्च पर्यशयं श्लथं च, दशौ च नासानियते स्थिरे च । न शिक्षितेयं परतीर्थनाथै जिनेन्द्र ! मुद्रापि तवान्यदास्ताम् ॥२०॥ हे जिनेन्द्र ! आपके अन्य गुणों को धारण करना तो दूर रहा, परन्तु अन्य देव पर्यंक प्रासन वाली ,अक्कड़ता रहित देह वाली और नासिका पर स्थिर दृष्टि वाली आपकी मुद्रा तक नहीं सीख पाए। (२०) यदीयसम्यक्त्वबलात् प्रतीमो, भवादशानां परमस्वभावम् । कुवासनापाशविनाशनाय, नमोऽस्तु तस्मै तव शासनाय ॥२१॥ हे वीतराग ! जिसके सम्यक्पने के बल से आप जैसों के शुद्ध स्वरूप का हम यथार्थ दर्शन कर सके हैं, उस कुवासना रूपी बन्धन के नाशक आपके शासन को हमारा नमस्कार हो । (२१) अपक्षपातेन परीक्षमारणा, द्वयं द्वयस्याप्रतिमं प्रतीमः । यथास्थितार्थप्रथनं तवैत दस्थाननिर्बन्धरसं परेषाम् ॥२२॥ हे भगवन् ! जब हम निष्पक्ष बन कर परीक्षा करते हैं तब आपका यथार्थ रूप से वस्तु का प्रतिपादन और अन्य मतावलम्बियों का पदार्थों को विपरीत ढंग से कथन करने का आग्रह दोनों वस्तु अप्रतिम प्रतीत होती हैं । (२२) जिन भक्ति ] [ 37 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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