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________________ अर्थ -- जो भगवान परब्रह्म के उत्पत्ति-स्थान हैं, जो महान् धैर्य की मूर्ति हैं, जो महान् चैतन्य के राजा हैं, जो चार निकायों के कर्मोपाधि से युक्त महान् देवों के भी देव हैं, जो महा मोहविजेता हैं और जो महावीर अर्थात् कर्मक्षय करने में महान् योद्धा के भी स्वामी हैं, वे श्री जिनेन्द्र प्रभु ही एक मेरी गति हों । (३२) 10 ] ( उपसंहार काव्यम् ) शार्दूलविक्रीडितम् इत्थं ये परमात्मरूपमनिशं श्रीवर्द्धमानं जिनम्, वन्दन्ते परमार्हता स्त्रिभुवने शान्तं परं दैवतम् । तेषां सप्तभियः क्व सन्ति दलितं दुःखं चतुर्धाऽपि तैमुक्तैर्यत् सुगुणानुपेत्य वृणुते ताश्चक्रिशक्रश्रियः ||३३|| इस प्रकार जो परम श्रावक सदा तीन भुवन में शान्त परमात्म-स्वरूप एवं परमदैवत श्री वर्धमान प्रभु की वन्दना करते हैं, उन श्रावकों को सात प्रकार के भय तो भला कैसे हो सकते हैं ? परन्तु वे मुक्त होकर चार प्रकार के दुःखों का भी दलन कर देते हैं और अनन्त चतुष्ट्य आदि उत्तम गुणों को प्राप्त करके चक्रवर्ती की एवं मोक्ष पर्यन्त की लक्ष्मियों का वरण करते हैं । (३३) Jain Education International For Private & Personal Use Only [ जिन भक्ति www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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