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________________ श्री उपमितिभवप्रपञ्चामहाकथा-रचयिता श्री सिद्धर्षिगरिणविरचितम् * श्री जिनस्तवनम् * अपारघोरसंसार - निमग्नजनतारक ! किमेष घोरसंसारे, नाथ ! तेविस्मतो जनः ? ॥१॥ अपार महा भयंकर संसार-सागर में डूबे हुए प्राणियों के तारणहार हे नाथ ! इस भयानक संसार-सागर में क्या आप मुझे भूल गये ? (१) सद्भावप्रतिपन्नस्य, तारणे लोकबन्धव ! त्वयाऽस्य भुवनानन्द !, येनाद्यापि विलम्ब्यते ? ॥२॥ हे लोकबंधु ! तीनों भुवन को प्रानन्द देने वाले ! इस कारण मैंने सच्चे भाव से आपको स्वीकार किया है, फिर भी आप संसार से मेरा उद्धार करने में अब भी विलम्ब कर रहे हैं ? (२) प्रापन्नशरणे दीने, करुणाऽमतसागर ! - न युक्तमीदृशं कर्तु, जने नाथ ! भवादृशाम् ॥३॥ अहो करुणामृत सागर ! शरणागत दीन जन के साथ आपके जैसे को इस प्रकार व्यवहार करना किसी भी तरह उचित नहीं है । (३) भीमेऽहं भवकान्तारे, मगशावकसन्निभः । विमुक्तो भवता नाथ ! , किमेकाकी दयालुना ? ॥४॥ हे नाथ ! आपके समान दयालु स्वामी ने, इस भयंकर भव-वन में हिरन के बच्चे की तरह मुझे अकेला क्यों छोड़ दिया है ? (४) इतश्चेतश्च निक्षिप्त - चक्षस्तरलतारकः । निरालम्बो भयेनैव, विनश्येऽहं त्वया विना ॥५॥ जिन भक्ति ] [ 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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