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अथ-पूर्व में क्षपक श्रेणी में आरूढ़ हुए तब से जो कामदेव रूपी मलिन शत्र के वैरी हैं, जो लोकाकाश रूपी पुरुषाकार के मस्तक पर विद्यमान सिद्ध शिला पर स्नान करने वाले हैं, जो ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले हैं, जो महान् ऐश्वर्य के भोक्ता हैं, जो महाव्रतधारी हैं, जो केवलज्ञान केवलदर्शन रूपी पार्वती के पति हैं, जो अष्टकर्मों के क्षय से अष्ट गुणों रूपी मत्तियों से युक्त हैं, जो कल्याण स्वरूप हैं तथा जो समस्त प्राणियों के नाथ हैं, वे परमात्मा जिनेन्द्र एक ही मेरी गति हों। (६) विधि-ब्रह्म-लोकेश- शंभु-स्वयंभू-,
चतुर्वक्त्रमुख्याभिधानां विधानाम् । ध्र वोऽथो य ऊचे जगत्सर्गहेतुः,
स एकः परात्मा गतिमें जिनेन्द्रः ॥७॥ अर्थ-विश्व के भव्य प्राणियों को मोक्ष मार्ग प्रदान करने में जो प्रभु निश्चल हेतु रूप हैं और जो विधि, ब्रह्मा, लोकेश, शंभु, स्वयंभू एवं चतुर्मुख आदि नामों के कारण रूप हैं, वे जिनेन्द्र ही एक मेरी गति रूप हों । (७) न शूलं न चापं न चक्रादि हस्ते,"
न हास्यं न लास्यं न गीतादि यस्य । न नेत्रे न गात्रे न वक्त्रे विकारः,
स एकः परात्मा गति, जिनेन्द्रः ॥८॥ अर्थ-जिनके हाथों में त्रिशल, धनुष एवं चक्र आदि शस्त्र नहीं हैं, जो हास्य, नृत्य एवं गीत आदि से दूर हैं और जिनके नेत्र, देह अथवा मुंह में विकार नहीं हैं, वे श्री जिनेन्द्र परमात्मा एक ही मेरी गति हों। (८) न पक्षी न सिंहो वृषो नापि चापं,
न रोषप्रसादादिजन्मा विडम्बः । न निद्य श्चरित्रैर्जने यस्य कम्पः,
__ स एकः परात्मा गतिमें जिनेन्द्रः ॥६॥ अर्थ-जिन प्रभु के पक्षी, सिंह तथा वृषभ का वाहन नहीं है, जिनके पुष्पों का धनुष नहीं है, जिन्हें रोष एवं हर्ष से प्राप्त विडंबना नहीं है और निन्दा करने योग्य चरित्रों से जिन्हें लोक में भय नहीं है, वे श्री जिनेन्द्र भगवान एक ही मेरी गति हों। (६)
जिन भक्ति ]
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