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जुगुप्साभयाज्ञान निद्राविरत्यं
गभृहास्यशुरद्वषमिथ्यात्वरागैः । न यो रत्यरत्यन्तरायः सिषेवे,
स एकः परात्मा गतिमें जिनेन्द्रः ॥३॥ अर्थ-निन्दा, भय, अज्ञान, नींद, अविरति, काम-लिप्सा, हास्य, शोक, द्वेष, मिथ्यात्व, राग, रति, अरति, तथा दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय एवं वीर्यान्तराय ये पांच अन्तराय इस प्रकार अठारह दोष जिनमें नहीं हैं वे एक ही परमात्मा जिनेन्द्र मेरी गति रूप हों। (३) न यो बाह्यसत्त्वेन मैत्री प्रपन्न
स्तमोभिन नो वा रजोभिः प्रणुन्नः । त्रिलोकीपरित्राणनिस्तन्द्रमुद्रः,
स एकः परात्मा गतिमें जिनेन्द्रः ॥४॥ अर्थ जो प्रभ बाह्य सत्त्व अर्थात लौकिक सत्त्व गुण से मित्रता नहीं रखते, जो अज्ञान रूपी अंधकार तथा रजोगुण से भी प्रेरित नहीं हैं और तीनों लोकों की रक्षा करने में जिनकी मूर्ति पालस रहित है, वे एक ही श्री जिनेन्द्र मेरी गति रूप हों। (४) हृषिकेश ! विष्णो ! जगन्नाथ ! जिष्णो !,
मुकुन्दाच्युत ! श्रीपते ! विश्वरूप ! अनन्तेति संबोधितो यो निराशैः,
स एकः परात्मा गतिर्मे जिनेन्द्रः ॥५॥ अर्थ-हे इन्द्रियों के नियंता ! हे लोकालोक में व्याप्त ज्ञान से युक्त ! हे विश्व में विद्यमान भव्य प्राणियों के नाथ ! हे राग-द्वेष के विजेता ! हे पाप से मुक्त कराने वाले ! हे स्खलन से रहित ! हे केवलज्ञान रूप लक्ष्मी के पति ! हे असंख्य प्रदेशों में अनावृत स्वरूप से युक्त ! हे अनन्त ! आदि सम्बोधनों से निष्काम पुरुषों ने जिन्हें सम्बोधित किया है, ऐसे श्री जिनेन्द्र प्रभु ही मेरी गति हों। (५) ।
पुराऽनंगकालारिराकाशकेशः,
- कपाली महेशो महावत्युमेशः । मतो योऽष्टमूर्तिः शिवो भूतनाथः,
स एकः परात्मा गतिमें जिनेन्द्रः ॥६॥
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[ जिन भक्ति
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