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________________ तीनों लोकों को सनाथ करने वाले एवं कृपारस-सिन्धु हे तीर्थपति ! जिस प्रकार सम-भूतला भूमि से पांच सौ योजन से दूर नन्दन-वन आदि तीन वनों से मेरु पर्वत सुशोभित है, उसी प्रकार से जन्म से ही आप मति आदि तीन ज्ञानों से सुशोभित हैं। हे विश्व-भूषण ! आप जिस क्षेत्र में जन्म धारण करते हैं, वह क्षेत्र तीन भवनों के मुकुट तुल्य आपके द्वारा अलंकृत होने से देव-भूमि से भी उत्तम बन जाता है। आपके जन्म-कल्याणक के महोत्सव से पावन बना दिन भी सदा आप ही के समान वन्दनीय हो जाता है। आपके जन्म आदि के दिनों में नितान्त दुःखी नरक के जीव भी सुख की अनुभूति करते हैं। भला अरिहन्तों का उदय किसका सन्ताप-नाशक नहीं होता? आपके चरणों का अवलम्बन पाकर अनेक प्रात्मा इस भयानक भव-सागर को पार कर लेते हैं। क्या जहाज का अाधार पाया हुअा लोहा भी सागर को पार नहीं कर पाता ? हे भगवन् ! आप मनुष्य लोक में लोगों के पुण्य से अवतीर्ण होते हैं । वृक्ष विहीन वन में कल्पवृक्ष की तरह और जल विहीन मरुस्थल में नदी के प्रवाह (धारा) के समान आपका जन्म लोगों को अत्यन्त इष्ट होता है। त्रिलोक रूपी कमल को विकसित करने के लिये भास्कर तुल्य एवं संसार रूपी मरुस्थल में कल्पतरु तुल्य हे जगन्नाथ ! वह मुहर्त भी धन्य है जिस मुहूर्त में पुनर्जन्म धारण महीं करने वाले आपका विश्व के प्राणियों के दुःखोच्छेदनार्थ जन्म होता है । उन मनुष्यों को भी धन्य है कि जो अहर्निश आपके दर्शन करते हैं। हे भव-तारणहार ! आपकी उपमा देने के लिये अन्य कोई वस्तु ही नहीं है। आपके समान पाप हो हैं, इतना ही कह कर हम रुक जाते हैं । आपके सद्भुत गुणों के विषय में कुछ कहने में भी हम समर्थ नहीं हैं, इसमें तनिक भी आश्चर्य नहीं है । स्वयंभूरमण समुद्र के अगाध जल की थाह लेने में भला कौन समर्थ है ? हे भगवन् ! आपके यथास्थित गुणों का वर्णन करने में हम असमर्थ हैं तो भी आपके प्रभाव से हमारी बुद्धि का अवश्य विस्तार होगा। हे स्वामी ! त्रस तथा स्थावर दोनों प्रकार के जन्तुओं की हिंसा के परिहार से पाप अभयदान की एक दानशाला के समान हैं। आप मृषावाद के सर्वथा परित्याग से प्रिय, पथ्य एवं तथ्य वचन रूपी अमत-रस के सागर हैं। हे जगत्-पति ! निरुद्ध मोक्ष मार्ग के द्वार को अदत्तादान के प्रत्याख्यान से खोलने वाले आप एक समर्थ द्वारपाल हैं। हे भगवन् ! अखण्ड ब्रह्मचर्य 112] [ जिन भक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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