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________________ माना जाता है। इस प्रकार इच्छा से अथवा अनिच्छा से जगत् में गुणी अथवा गुणहीन की प्रशंसा होती ही रहती है । ऐसी दशा में जो मनुष्य श्री जिन-गुण स्तवन के प्रति अपनी अरुचि एवं घृणा प्रदर्शित करते हों, तो वे मनुष्य लोक-स्वभाव से भी सर्वथा अपरिचित हैं, यह कहने के सिवाय अन्य कोई उपाय नहीं है । वस्तुतः यदि विचार किया जाये तो स्तुति करने योग्य स्तुत्यगण में श्री जिनेश्वर भगवान सर्वप्रथम आते हैं। श्री जिनेश्वर के अतिरिक्त अन्य गुणी जन इस जगत में अस्तित्व नहीं रखते हों, ऐसी बात नहीं है, परन्तु श्री जिनेश्वर के गुणों का स्तवन करने में सभी के गुणों के स्तवन का समावेश हो जाता है और एक श्री जिनस्तव को छोड़कर अन्य समस्त गुणवानों का स्तवन किया जाये, तो भी वह गुण-स्तवन अपूर्ण ही रहता है, यह बात विचक्षण व्यक्तियों को समझने की अनिवार्य आवश्यकता है । श्री जिनेश्वर देवों को स्तुति श्री जिनेश्वर देवों की स्तुति करने से पूर्व महापुरुष कहते हैं कि हे भगवन् ! हम बुद्धिहीन व्यक्तियों को गुणों के पर्वत तुल्य अापकी स्तुति करने के लिये हमें वाणो प्रदान करने वाले आपके लोकोत्तर (अलौकिक) गुण ही हैं । जिस प्रकार रत्नाकर रत्नों से सुशोभित होता है, उसी प्रकार से हे जगत्-पति ! आप भी ज्ञान, दर्शन, वीर्य एवं आनन्द आदि गुणों से सुशोभित हैं। ___मनुष्य लोक में आपका जन्म विनष्ट हए धर्म-वृक्ष के बीज को पुनः अंकुरित करने के लिये ही हसा प्रतीत होता है। हे भगवन् ! आपकी भक्ति के अंश मात्र का फल भी महान ऋद्धि एवं कान्तियुक्त देव जहां विद्यमान हैं ऐसो स्वर्गभूमि में निवास कराता है। हे देव ! आपकी भक्ति-विहीन आत्माओं का महान् तप भी मुर्ख व्यक्तियों को ग्रन्थाध्ययन की तरह केवल कष्टदायी ही होता है। हे वीतराग ! आपके प्रशंसक अथवा निन्दक के प्रति आप समान मनोवत्ति रखने वाले होते हए भी आप उस प्रशंसक एवं निन्दक को शुभ-अशुभ भिन्न-भिन्न फल प्रदान करते हैं, यह आश्चर्यजनक है। हे नाथ ! आपकी भक्ति के समक्ष स्वर्ग-लक्ष्मी भी हमें तुच्छ प्रतीत होती हैं । हे भगवन् ! हमारी केवल एक ही अभिलाषा है कि भव-भव में हमारे हृदय में आपके प्रति अक्षय भक्ति जागृत हो । जिन भक्ति ] [ 111 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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