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________________ इस प्रकार समस्त स्तुतिकारों ने अपनी उस विषय की असमर्थता को निःसंकोच भाव से प्रदर्शित करते हुए कहा है कि- “हममें सामर्थ्य नहीं होते हुए भी हम श्री जिन-गुण गाने के लिए उद्यत हुए हैं, उसका कारण केवल हमारी श्रद्धा एवं श्री जिन-गुणों के प्रति हमारी भक्ति ही है। परमात्म-गुणों की भक्ति हमें संभव-प्रसंभव के विचार-चातुर्य से रहित करती है। क्योंकि हम जानते हैं कि श्रद्धा एवं भक्ति से बोले हुए उल्टे-सीधे अथवा असम्बद्ध वचन भी बालालाप की तरह श्रोताओं में अरुचि नहीं परन्तु विस्मय एवं कौतुक उत्पन्न किये बिना नहीं रहते।" निर्मल बुद्धि वाले सज्जन पुरुष ऐसी असमंजस पूर्ण चेष्टा की हँसी नहीं उड़ाते, परन्तु वैसा करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं; क्योंकि वे निर्मल मतिवाले महापुरुष समझते हैं कि स्तुति कोई गुरणों की यथार्थ प्रदर्शक नहीं है, परन्तु स्तुति करने वाली प्रात्मा में उक्त गुण के प्रति जो विशुद्ध श्रद्धा एवं भक्ति निहित है, उसकी ही केवल प्रदर्शक है। समस्त स्तवन योग्य महापुरुषों के स्तवन का अन्तर्भाव जिसके गुणों के प्रति जिसे श्रद्धा एवं भक्ति है, उसके गुणों का कीर्तन करने के लिये जगत् में कौन प्रवृत्त नहीं होता ? अवाग् एवं अबूझ प्राणी भी अपने पालकों और पोषकों के गुण-गान करने के लिए अपने अंगोंपांगों के द्वारा विविध प्रकार की चेष्टा करते दृष्टिगोचर होते हैं, तो फिर विशुद्ध वाणी एवं विशुद्ध चैतन्य युक्त आत्मा अपने उपकारियों के गणों का वर्णन करने के लिए अपनी देह एवं वाणी के द्वारा समस्त संभव प्रयत्न करें तो उसमें आश्चर्य ही क्या है ? श्री जिन-गुण-स्तवन के प्रति श्रद्धा रखने वाले व्यक्ति भी स्वरुचि के अनुसार भिन्न-भिन्न मनुष्यों और पशुओं तक का गुण-गान करने में क्या कमी रखते हैं ? यदि सोचा जाय तो इस जगत् में सर्वत्र प्रशंसा का साम्राज्य छाया हुआ है। अपने स्वयं के प्रशंसक की प्रशंसा करना वर्तमान समय में शिष्टाचार का एक प्रमुख अंग माना जाता है तथा यदि प्रशंसक की प्रशंसा न की जाये तो उसे शिष्टाचार भंग करने वाला घोषित किया जाता है। इसी प्रकार से जिस व्यक्ति की प्रशंसा जन-समुदाय का अधिकतर वर्ग करता हो अथवा जो व्यक्ति अपने पुण्य-बल से विशाल जन-समुदाय पर सत्ता जमाया हुआ हो, उसकी भी प्रशंसा करनी चाहिये, यह जगत द्वारा स्वीकृत है । यदि ऐसा नहीं किया जाये तो उसे लोगों का अथवा सत्ता का अपराधी 110 ] [ जिन भक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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