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करने में प्रयत्नशील होते हैं और उस कार्य के द्वारा वे अपनी आत्मा को कर्म-मल से मुक्त करते हैं । गुरण-वर्णन की आवश्यकता
__गुणवान अथवा अधिक गुणों वाली प्रात्माओं के अद्भुत गुणों का समुत्कीर्तन करना ही वाणी (सरस्वती) प्राप्ति करने का सच्चा फल है। जो स्तुति करने योग्य होते हैं उनको स्तुति करने का अवसर जीव को इस भव-वन में किसी समय ही प्राप्त होता है। शक्ति के अभाव में अधिकतर समय तो योग्य पुरुष को स्तुति किये बिना ही व्यतीत होता है और शक्ति प्राप्त होने पर अयोग्य की स्तुति करने में वह शक्ति नष्ट हो जाती है । ऐसी दशा में योग्य की स्तुति करने का अवसर प्राप्त होना अत्यन्त ही कठिन होता है । यह तत्त्व समझने वाले तत्त्वज्ञ महापुरुषों को इस प्रकार की शक्ति प्राप्त हो जाये तब वे स्तवन करने योग्य महापुरुषों को स्तवना करने में तनिक भी कमी नहीं रखते । इस बात का परिचय आज पूर्वाचार्यों द्वारा रचित असंख्य स्तोत्र, स्तवन एवं स्तुति हमें प्रत्यक्ष रूप से कराती हैं। महापुरुषों को प्राप्त वक्त त्व शक्ति एवं कवित्व शक्ति का उपयोग श्री जिनेश्वर भगवान के गुण-गान करने के लिए मुक्त रूप से हुआ है। यद्यपि वे इस प्रकार से भी जिनेश्वर देव के एक भी गुरा का पूर्णतः उत्कीर्तन करने में समथ नहीं हए हैं ----यह बात वे स्वयं स्वीकार करते हैं और उसका कारण भी स्पष्ट ही है, परन्तु सच्चे गुरण का वाणी से पूर्णतः वर्णन करना असंभव है। वाणो तो केवल दिशा-निर्देश कर सकती है। अतः पहचान तो उक्त दिशा-निर्देश से होने वाले प्रात्मानुभव पर प्राधार रखती है । विशुद्ध श्रद्धा एवं भक्ति
किसी भी गुण की सच्ची महिमा वारणी के द्वारा व्यक्त नहीं की जा सकती, किन्तु मन के द्वारा प्रकट की जा सकती है । अतः एक महापुरुष का कथन है कि-- “सत्यगुण के कथन में कदापि अतिशयोक्ति हो ही नहीं सकती, सदा अल्पोक्ति ही रहती है।" इस सत्य को परमार्थदर्शी पूर्व प्राचार्य प्रवर यथार्थ रूप से समझते थे। इस कारण श्री जिन गुण स्तवन में उन्होंने वारणी को अविरल वष्टि की तदपि यह अविरल प्रवाह उनके एक भी सद्भुत गुण का तनिक भी वर्णन नहीं कर सका; इस सत्य को उन्होंने स्वीकार किया है। किसी ने बाल-चपलता करने की बात कही है तो किसी ने दोनों भजाएँ फैला कर समद्र की विशालता का वर्णन करने जैसी चेष्टा करने की बात कही है।
जिन भक्ति ]
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