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________________ रूपी महा तेज का विस्तार करने के लिये तथा मन्मथ रूपी अंधकार का मंथन करने के लिये आप एक प्रचण्ड सूर्य हैं । हे नाथ ! पृथिवी आदि समस्त परिग्रह का एक साथ पलाल पुञ्ज की तरह परित्याग करने वाले आप त्याग - मूर्ति हैं। पंच महाव्रत रूपी व्रत का बोझा वहन करने के लिये वृषभ तुल्य एवं भव- सिन्धु को पार करने के लिये जहाज तुल्य आपको हमारा पुनः पुनः नमस्कार हो, पाँच महाव्रतों की सहोदर बहनों के समान पाँच समितियों के धारक आपको पुनः पुनः नमस्कार हो और आत्मारामैकमन से युक्त, वचन गुप्ति के धारक एवं समस्त चेष्टाओं से निवृत्त आपको पुनः पुनः नमस्कार हो । हे अखिल विश्व के नाथ ! अखिल विश्व को अभय प्रदान करने वाले ! संसार - सागर - समुत्तारण ! प्रातः काल में आपके दर्शन से हमारे समस्त पाप नष्ट होते हैं । हे नाथ ! भव्य जीवों के मन रूपी जल को निर्मल करने के लिये कतक चूर्ण के समान आपकी वाणी का जय जयकार होता है । है करुणा क्षीर सागर ! आपके शासन रूपी महारथ पर प्रारोहण करने वालों को दूरस्थ लोकाग्र भी समीप प्रतीत होता है । हे देव ! आप निष्कारण जगबंधु का मैं साक्षात् दर्शन करता हूँ, वह लोक लोकाग्र की अपेक्षा भी मेरे मन में उत्तम है । हे स्वामी ! आपके दर्शन रूपी महानंद के रस से परिपूर्ण नेत्रों के द्वारा संसार में भी मैं मोक्ष सुख के आस्वादन का अनुभव करता हूँ । रागद्व ेष एवं कषाय रूपी भयानक शत्रुओं से पीड़ित जगत् भी हे नाथ ! आप अभय देने वाले की कृपा से ही निर्भय है । तत्त्व को आप स्वयं ही बताते हैं, आप ही मार्ग भी बताते हैं तथा विश्व की आप ही रक्षा करते हैं, तो फिर मेरे लिये मांगने का कुछ रहता ही नहीं है । हे भगवन् ! आपकी पर्षदा में परस्पर युद्ध करने वाले शत्रुराज भी मित्र बन कर रहते हैं । हे देव ! आपकी पर्षदा में शाश्वत वैर रखने वाले अन्य जीव भी आपके असीम प्रभाव से अपनी स्वाभाविक शत्रुता को भुला कर मैत्री धारण करते हैं । ( २ ) वारगी का सच्चा फल - - गुणवान के गुणों का उत्कीर्तन करना प्राप्त वारणी का सच्चा फल है । वाणी प्राप्त होने पर उसका कुछ न कुछ उपयोग होता ही रहता है । जिन भक्ति ] [ 113 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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