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________________ मदृशौ स्वन्मुखासक्ते, हर्षवाष्पजलोमिभिः । अप्रेक्ष्यप्रेक्षणोद्भूतं, क्षरणातक्षालयतां मलम् ॥२॥ आपके मुख के प्रति आसक्त मेरे नेत्र पहले अप्रेक्ष्य वस्तुओं को देखने से उत्पन्न पाप-मल को पल भर में हर्षाश्रुओं के जल की तरंगों से धो डालें । (२) त्वत्पुरो लुठनभू यान, मद्भालस्य तपस्विनः । कृतासेव्यप्रणामस्य, प्रायश्चित्तं किरणावलिः ॥३॥ हे प्रभु ! उपासना के लिए अयोग्य अन्य देवों को प्रणाम करने वाली और तीनों लोकों द्वारा सेव्य प्रापको उपासना से वंचित रहने से करुणास्पद बनी मेरी इस ललाट को आपके समक्ष नमाने से उस पर लगी हुई क्षत की श्रेणी ही प्रायश्चित्त स्वरूप हो। (३) मम त्वदर्शनोद्भूताश्चिरं रोमाञ्चकण्टकाः । नुदन्तां चिरकालोत्था -मसदर्शनवासनाम् ॥४॥ हे निर्मम-शिरोमणि ! आपके दर्शन से मुझ में चिरकाल तक उत्पन्न रोमांच रूपी कण्टक दीर्घ काल से उत्पन्न कुशासन की दुर्वासना का अत्यन्त नाश करें। (४) त्वद्वक्त्रकान्तिज्योत्स्नासु, निपीतासु सुधास्विव । मदीयैर्लोचनाम्भोजः, प्राप्यतां निनिमेषता ॥५॥ हे नाथ ! अमृत तुल्य आपके मुंह की कान्ति रूपी ज्योत्स्ना का पान करते हुए मेरे नेत्र रूपी कमल निनिमेष रहें । (५) त्वदास्यलासिनी नेत्रे, त्वदुपास्तिकरौ करौ । त्वद्गुणश्रोतृणी श्रोत्रे, भूयास्तां सर्वदा मम ॥६॥ हे नाथ ! मेरे दोनों नेत्र आपका मुंह देखने में सदा लालायित रहें, मेरे दोनों हाथ आपकी पूजा करने में सदा तत्पर रहें और मेरे दोनों कान आपके गुणों का श्रवण करने के लिये सदा उद्यत रहें। (६) कुण्ठापि यदि सोत्कण्ठा, त्वद्गुणग्रहणं प्रति । ममैषा भारती हि, स्वस्त्यै तस्यै किमन्यया ॥७॥ 106 ] [ जिन भक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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