SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आपकी यह आज्ञा सदा हेय-उपादेय के विषय में है, और वह यह है कि आस्रव समस्त प्रकार से हेय (त्याग करने योग्य) हैं और संवर समस्त प्रकार से उपादेय (अंगीकार करने) योग्य करने हैं । (५) प्रास्रवो भवहेतुः स्यात्, संवरो मोक्षकारणम् । इतीयमाहती मुष्टि - रन्यदस्याः प्रपञ्चनम् ।।६॥ आस्रव भय का कारण है और संवर मोक्ष का कारण है। श्री अरिहन्त देवों के उपदेश का यह संक्षिप्त रहस्य है। अन्य समस्त उसका विस्तार है। (६) इत्याज्ञाराधनपरा, अनन्ताः परिनिर्वृत्ताः । निर्वान्ति चान्ये क्वचन, निर्वास्यन्ति तथा परे ॥७॥ इस प्रकार की आज्ञा के आराधक अनन्त प्रात्मानों ने निर्वाण प्राप्त किया है, अन्य कुछ कहीं प्राप्त करते हैं और अन्य अनन्त भविष्य में निर्वाण पद प्राप्त करेंगे। (७) हित्वा प्रसादनादैन्य - मेकयेव त्वदाज्ञया । सर्वथैव विमुच्यन्ते, जन्मिनः कर्मपञ्जरात् ॥८॥ हे विश्वेश ! जगत् में ऐसा कहा जाता है कि यदि स्वामी की प्रसन्नता हो तो फल की प्राप्ति होती है परन्तु यह बात चिन्तामणि के दृष्टान्त से असंगत है-इसी प्रकाश के द्वितीय श्लोक में यह सिद्ध करके बताया गया है। अतः दीनता का त्याग करके निष्कपट भाव से आपकी आज्ञा की आराधना करके भव्य प्राणी कर्म रूपी पिंजरे से सर्वथा मुक्त होते हैं । इस कारण आपकी आज्ञा की आराधना करना ही मुक्ति का एक श्रेष्ठ उपाय है । (८) बीसवाँ प्रकाश पादपीठलुठन्मूनि, मयि पादरजस्तव । चिरं निवसतां पुण्य - परमाणुकरणोपमम् ॥१॥ आपके पादपीठ में शीश नमाते समय मेरे ललाट पर पुण्य-परमाणुकणों के समान आपकी चरण-रज चिरकाल रहे । (१) जिन भक्ति ] [ 105 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy