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________________ क.१७,१-९,१८, उत्तरकण्डं-चउरासीमो संधि [२३७ [१७] जं चारित्तु विणासि राएं जणणु विवाइउ गरुअ-कसाएं ॥ १ . णं 'सरसइ -सुअ झत्ति पलित्ती जलण-तिडिक्क पलाले व पित्ती ॥२ वेविरङ्गि आयम्विर - णयणी. पभणइ दर - फुरियाहर - वयणी ॥ ३ "रे णिसंस कप्पुरिस अ-लज्जिय खल वराय दुग्गइ - गम - सजिय ॥ ४ । जं पइँ महु जणेरु सङ्घारेंवि• हउँ परिहुत्त वला तहों हारेंवि ॥ ५ तं तउ गरुअ-कम्म-संचरणेहों झेसमि वाहि व कारणु मरणहों" ॥६ एव भणेवि णरवइहें णिलुक्केंदि कह वि कह वि जिण-भवणु पटुक्केवि ॥ ७ हरिकन्तियहें पासु णिक्खन्ती वम्भ-लोउ वहु-कालें पत्ती ॥८ ॥ घत्ता ॥ सम्भु वि सिय-सयण-विमुक्कउ जिणवर-वयण - परम्मुहउँ । मिच्छाहिलाणु मणे मूढउ. वहु-दिवसेंहिँ दुंग्गइहें गउ ॥ ९ [१८] तहिँ महन्त -दुक्खइँ पावेप्पिणु तिरिय -गइ वि णीसेस भमेप्पिणु ॥१ पुणु सावित्ति-गब्में पङ्कय - मुहु जाउ कुसद्धय - विष्पहों तणुरुहु ॥२ ।। णामु पहासकुन्दु सुपसिद्धउ दुल्लह-वोहि-रयण - सुसमिद्धउ ॥३ दिक्खङ्किउ चउ - णाण- सणाहहाँ पासे विचित्तसेण - मुणिणाहहाँ ॥४ तवु करन्तु परमागम - जुत्तिएँ एक-दिवसें गउ वन्दणहत्तिएँ ॥५ सम्मेइरिहें परायउ जाहिँ कणयप्पहु विज्जाहरु ताहिँ ॥ ६ गयणगणें लक्खिज्जइ जन्तउ जो सुरवइहें वि सियऍ महन्तउ ॥७ ४ तं णिएवि परिचिन्तिउ साहुहुँ मयरकेउ- मयलञ्छण-राहुहुँ॥८ "होउ ताव महु सासय-सोक्खें विल्व- विवजिएण तें मोक्खें ॥९ ॥ घत्ता ॥ दूसहहों जिणागम-कहियों अस्थि किं पि जइ तवहाँ फलु।। • तो एहउ अण्ण-भवन्तरे होउ पहुत्तणु महु सयलु" ॥ १० ॥ 17. 1 PS °ल. 2 P °रंमि, A रंगे. 3 Ps परिहूय वाल परिहारे (s रि) वि. 4 , 3. 5 PS A °हि. 18. 1PS कुयुद्धय. 2 P S A °म. 3 A सिए वह. 4 A साहु. 5 P राहहुं, राहहु, A राहु[१७] १ वेदवती. २ कम्पायमान. ३ रे आचारभ्रष्ट. ४ बलाद् भुक्ता, नाशयित्वा वा (2) [१८] १ पूर्यताम्. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002525
Book TitlePaumchariu Part 3
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1960
Total Pages388
LanguageSanskrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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