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१४५० सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [गणान्त प्रकृते सूत्रम् २४-२६
यः पार्श्वस्यादिभिरेव मुण्डितः-प्रवाजितस्तस्य दीक्षादिनादारभ्य आलोचना भवति । यस्तु पूर्व संविमः पश्चात् पार्श्वस्थो जातः तस्य संविमपुराणस्य यत्प्रभृति अवसन्नो जातस्तद्दिनादारभ्याऽऽलोचना भवति ॥ ५४६९ ॥ सूत्रम्
गणावच्छेइए य गणादवकम्म इच्छेज्जा अन्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपजित्ताणं विहरित्तए, णो से कप्पति गणावच्छेइयत्तं अणिक्खिवित्ता संभोगपडियाए जाव विहरित्तए; कप्पति से गणावच्छेइअत्तं णिक्खि. वित्ता जाव विहरित्तए । णो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव विहरित्तए; कप्पति से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव विहरित्तए । ते य से वितरंति एवं से कप्पइ अन्नं गणं संभोगपडियाए जाव विहरित्तए; ते य से नो वितरंति एवं से णो कप्पइ जाव विहरित्तए । जत्थुत्तरियं धम्मविणयं लभेजा एवं से कप्पति अन्नं गणं सं० जाव विहरित्तए; जत्थुत्तरियं धम्मविणयं नो लभेजा एवं से णो कप्पति जाव विहरित्तए २४ ॥ आयरिय-उवज्झाए य गणादवकम्म इच्छेजा अन्नं गणं संभोगपडियाए जाव विहरित्तए, णो से कप्पति आयरिय-उवज्झायत्तं अणिक्खिवित्ता अण्णं गणं सं० जाव विहरित्तए; कप्पति से आयरिय-उवज्झायत्तं णिक्खिवित्ता जाव विहरित्तए । णो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव विहरित्तए; कप्पति
से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव विहरित्तए । ते 28
य से वितरंति एवं से कप्पति जाव विहरित्तए; १तः स पुराणसंविग्नः, गाथायां व्यत्यासेन पूर्वापरनिपातः प्राकृतत्वात् , तस्य
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