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३६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
"पुद्गलधर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि व्यवहारनयेन जीवस्य शरीरवाङ्मनः प्राणापानादिगतिस्थित्यवगाहवर्तनाकार्याणि कुर्वन्तीति कारणानि भवन्ति। जीवद्रव्यं पुनर्यद्यपि गुरुशिष्यादिरूपेण परस्परोपग्रहं करोति तथापि पुद्गलादिपंचद्रव्याणां किमपि न करोतीत्यकारणम्।'६
पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, कालये पाँचों द्रव्य जीव का उपकार करते हैं, इसलिए वे कारणभूत हैं, किन्तु जीव सत्तास्वरूप है, उनका कारण नहीं है। उपर्युक्त पाँचों द्रव्यों में से व्यवहार नय की अपेक्षा जीव के शरीर, मन, वचन, श्वास, निःश्वास आदि कार्य तो पुद्गल द्रव्य करता है और गति, स्थिति, अवगाहन और वर्तना रूप कार्य क्रम से धर्म, अधर्म, आकाश और काल करते हैं। इसलिए पुद्गलादि पाँच द्रव्य कारण हैं। पुद्गल आदि पाँचों द्रव्यों के लिए जीव कुछ भी नहीं करता, इसलिए वह अकारण है, किन्तु जीव द्रव्य गुरु शिष्य आदि रूप से आपस में एक-दूसरे का उपकार करने से कारण है। धर्मास्तिकाय की कारणता
धर्मास्तिकाय जीवों और अजीवों की गति में सहकारी कारण बनता है। व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में कहा है
"धम्मऽस्थिकाए णं जीवाणं आगमण-गमण, भासुम्मेस, मणजोगवइजोग- कायजोग, जे यावन्ने तहप्पगारा चलाभावा सब्वे ते धम्मत्थिकाए पवत्तंति। गतिलक्खणे णं धम्मत्थिकाए।
धर्मास्तिकाय जीवों के आगमन, गमन, भाषा और उन्मेष में ही सहायक नहीं होता, अपितु मनोयोग, वचनयोग और काययोग की प्रवृत्ति में भी जीव का निमित्त बनता है। इस तरह के जितने भी चल भाव है, वे सब धर्मास्तिकाय द्वारा प्रवृत्त होते हैं।
बृहत्द्रव्यसंग्रह में इस प्रकार कहा गया है
गइपरिणयाण धम्मो पुग्गलजीवाण गमणसहयारी।
तोयं जह मच्छाणं अच्छताणेव सो णेई।।
धर्मास्तिकाय जीवों को गमन के लिए प्रेरित नहीं करता, किन्तु उदासीन रूप से उसके गमन कार्य में कारण बनता है। जैसे- मछलियों के गमन में जल सहायक बनता है किन्तु उसे तैरने के लिए प्रेरित नहीं करता।
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