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जैनदर्शन में कारणवाद और पंचसमवाय ३५ प्रकटता के लिए उपादान रूप से कारण बनते हैं। क्योंकि सम्यग्दर्शन इन तीन भाव स्वरूप ही है। चारित्र मोहनीय (अनन्तानुबंधी) आदि का क्षयोपशम और संज्ञी पंचेन्द्रिय आदि का उदय, ये दोनों भाव सम्यग्दर्शन के लिए निमित्त रूप से कारण बनते हैं क्योंकि इनकी विद्यमानता में ही सम्यग्दर्शन प्रकट होता है। इस प्रकार उपादान-निमित्त की समग्रता ही सम्यग्दर्शन को प्रकट करती है। मोक्षप्राप्ति में भी उपादान-निमित्त सहायक बनते हैं।
जैनदर्शन उपादान और निमित्त के योग से कार्य की निष्पत्ति स्वीकार करता है। यहाँ षड द्रव्यों में एवं द्रव्यादिचतुष्क में निमित्त एवं उपादान की कारणता पर विचार किया जा रहा हैषड्दव्यों में निमित्तोपादानता
जैन दर्शन में छ: द्रव्य माने गए हैं- १. धर्मास्तिकाय २. अधर्मास्तिकाय ३. आकाशास्तिकाय ४. काल ५. पुद्गलास्तिकाय ६. जीवास्तिकाय।
इन छह द्रव्यों में सभी द्रव्य उपादान और निमित्त रूप में कारण हैं। प्रत्येक द्रव्य में कार्य की अपेक्षा वह द्रव्य कार्य का उपादान कारण होता है तथा अन्य द्रव्य निमित्त कारण होते हैं।
साधारणतया इन छ: द्रव्यों में प्रथम चार धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य उदासीन निमित्त के अन्तर्गत आते हैं और जीव व पुद्गल अपेक्षा से निमित्त कारण बनते हैं। जीव कार्य में अजीव प्रेरक निमित्त और अजीव कार्य में जीव प्रेरक निमित्त बन सकता है। अत: ये छः ही उदासीन और प्रेरक रूप से निमित्त कारण बनते हैं। दव्यादिचतुष्क में निमित्तोपादानता
द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में से द्रव्य का त्रिकाली उपादान में और भाव का क्षणिक उपादान में समावेश कर सकते हैं। अत: द्रव्य तथा भाव को उपादान कारण कहा जा सकता है। क्षेत्र (स्थान) और काल उदासीन निमित्त होने से निमित्त कारण माने जा सकते हैं। षड्दव्यों की कारणता
षड्द्रव्यात्मक इस लोक में निरन्तर कारण कार्य घटित होते रहते हैं। कारण की दृष्टि से षड्द्रव्य पर विचार किया जा रहा है। षड्द्रव्यों को कारण के रूप में व्याख्यायित करते हुए द्रव्य संग्रह की टीका में कहा है
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