SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण निमित्त दो प्रकार के होते हैं- १. उदासीन और २. प्रेरक। उदासीन निमित्त अन्य द्रव्य को प्रेरणा किए बिना उसके कार्य में सहायक मात्र होता है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि वह बिल्कुल व्यर्थ ही है अपितु कार्य की निष्पत्ति उसके बिना असंभव होने से उसको अविनाभावी सहायक माना गया है जैसे- मछली के लिए जल तैरने में उदासीन रूप से सहायक है, इसी प्रकार धर्म, अधर्म आदि द्रव्य भी जीव की गति-स्थिति में उदासीन कारण हैं। जो अपने आप में क्रियाशील-सक्रिय रहकर अन्य वस्तु के परिणमन में अनुकूल होते हैं, वे प्रेरक निमित्त कहलाते हैं। प्रेरक निमित्त क्रियावान् द्रव्य ही हो सकता है। वस्तु की सहायता व अनुग्रह करने के कारण वह निमित्त उपकारक, सहायक, सहकारी, अनुग्राहक आदि नामों से पुकारा जाता है। जैसे-घट निर्माण में कुम्भकार आदि प्रेरक निमित्त है। इस तरह उपादान और निमित्त के समन्वय से ही कार्य संभव बनता है। अतः तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में "सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च" सूत्र की टीका में सूत्रकार ने सातावेदनीय के लिए जीव को उपादान और कर्म को निमित्त कारण कहते हुए लिखा है'अत्रोपग्रहवचनं सद्वेद्यादिकर्मणां सुखाद्यत्यत्तौ निमित्तमात्रत्वेनानुग्राहकत्वप्रतिपत्यर्थ परिणामकारणं जीवः सुखादीनां तस्यैव तथा-परिणामात्। अर्थात् यहाँ 'उपग्रह' शब्द का प्रयोजन यह प्रतिपत्ति करा देना है कि जीव के सुखादि की उत्पत्ति करने में सातावेदनीय आदि कर्म केवल निमित्त होकर अनुग्राहक हैं। शरीर आदि के उपादान कारण जैसे पुद्गल हैं, उस प्रकार सुखादि के उपादान कारण पुद्गल नहीं है, सुखादि परिणामों का उपादान कारण जीव है। क्योंकि उस जीव की ही उस प्रकार सुख आदि रूप करके परिणति होती है। इसी कारण सातावेदनीय आदि कर्मों को जीव-विपाकी प्रकृति कहा गया है- 'अद्वत्तरि अवसेसा जीव-विवाई मुणेयव्वा' क्योंकि जीव में उन सातावेदनीय आदि कर्मों का विपाक हो रहा देखा जाता है। दोनों कारण आवश्यक- इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि निमित्त के अभाव में अकेले उपादान से कार्य नहीं होता और न उपादान के बिना निमित्त कारण से ही कार्य का होना संभव है। सभी कार्यों में यही व्यापक नियम लागू होता है। सम्यग्दर्शन को प्रकट करने में जीव के भाव कारणभूत बनते हैं। पाँच भावों में दर्शन मोहनीय का क्षयोपशम, क्षय और उपशम, ये तीन भाव सम्यग्दर्शन की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy