SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनदर्शन में कारणवाद और पंचसमवाय ३७ अधर्मास्तिकाय की कारणता जीव और अजीव की स्थिरता में अधर्म द्रव्य हेतु होता है। भगवती सूत्र के अनुसार अधर्मास्तिकाय जीवों के स्थिरीकरण में, निषीदन में, त्वग्वर्त्तन (करवट, लेटना या सोना) में सहायक होता है तथा मन की एकाग्रता आदि जितने भी स्थिर भाव हैं, वे सब अधर्मास्तिकाय से प्रवृत्त होते हैं। __ "अहम्मऽस्थिकाए णं जीवाणं ठाण-निसीयण, तुयट्टण-मणस्सय एगत्ती भावकरणता, जे यावन्ने तहप्पगारा थिरा भावा सव्वे ते अहम्मऽस्थिकाये पवत्तंति।१० 'यावन्ने तहप्पगारा' के अन्तर्गत मौन भाव कायोत्सर्ग आदि का भी ग्रहण किया जा सकता है। बृहत्द्रव्यसंग्रह में कहा है ठाणजुदाण अधम्मो पुग्गलजीवाण ठाणसहयारी। छाया जह पटियाणं गच्छंता णेव सो धरई।। जिस प्रकार छाया यात्रियों को ठहरने में सहकारी होती है उसी प्रकार 'अधर्म' द्रव्य जीवों के ठहरने में उदासीन कारण बनता है। गमन करते हुए जीवों को और पुद्गलों को अधर्म द्रव्य बलात् नहीं ठहराता, किन्तु वह जब स्थिर होता है तो वह उसकी स्थिरता में सहायता करता है। आकाशास्तिकाय की कारणता जीव और पुद्गलों को अवकाश देने का कार्य आकाश द्रव्य करता है____ अवगासदाणजोग्गं जीवादीणं वियाण आयासं।।२२ जैसे-दूध से पूरे भरे गिलास में शक्कर डालने पर भी दूध बाहर नहीं गिरता है और शक्कर को अपने अन्दर स्थान दे देता है, वैसे ही आकाश धर्म-अधर्म से ठसाठस भरा होने पर भी इस लोक में जीव व पुद्गलों को स्थान देने में सहायक होता है। यही इसकी अन्य द्रव्यों के प्रति कारणता है। भगवती सूत्र में आकाश को जीवअजीव द्रव्यों का भाजन भूत कहा है "आगासत्थिकाए णं जीव दबाण य अजीव दव्वाण य भायणभूए। १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy