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एक समीक्षा" विषयक शोध-प्रबन्ध का संशोधित रूप है। इस ग्रन्थ में 'पंच समवाय' सिद्धान्त के विकास-क्रम को प्रस्तुत करते हुए कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद और पुरुषवाद या पुरुषार्थ का वेद, उपनिषद्, पुराण, महाभारत, रामायण, भगवद्गीता, न्याय-वैशेषिक, सांख्य, योग, बौद्ध, मीमांसा, शैव आदि जैनेतर दर्शनों, जैनागम, टीकाओं, चूर्णि, भाष्य प्रभृति विभिन्न दार्शनिक कृतियों के अध्ययन के आधार पर इस लघु विषय को सुव्यवस्थित एवं विस्तृत स्वरूप प्रदान किया गया है।
ग्रन्थ परिचय- यह ग्रन्थ सप्त अध्यायों में विभाजित है। प्रथम अध्याय में कारण-कार्य की सामान्य चर्चा है। सत्कार्यवाद, सत्कारणवाद, असत्कार्यवाद, असत्कारणवाद नामक कारण-कार्य के प्रमुख सिद्धान्तों का विवेचन करने के अनन्तर जैन दर्शन के 'सदसत्कार्यवाद' सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। जैन दर्शन में मान्य द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-भव, तद्रव्य-अन्यद्रव्य, निमित्त-नैमित्तिक, समवायीअसमवायी, षट्कारकों की कारणता, षड्द्रव्यों की कारणता, कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, कर्मवाद, पुरुषार्थ या पुरुषवाद का संक्षिप्त स्वरूप प्रस्तुत किया गया है।
- 'कालवाद' नामक द्वितीय अध्याय में काल की एकान्तिक कारणता का प्रतिपादन एवं निरसन है। वेद, उपनिषद्, पुराण, महाभारत एवं ज्योतिर्विद्या में विद्यमान कालवाद के स्वरूप का प्रतिपादन करने के अनन्तर न्याय-वैशेषिक, सांख्य, योग, वेदान्त, व्याकरण आदि दर्शन ग्रन्थों के अनुसार काल-विषयक चर्चा की गई है। जैनागम एवं जैनदार्शनिक कृतियों के आधार पर कालवाद का निरूपण तथा निरसन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। अन्त में जैन दार्शनिकों को मान्य कथंचित् कारणता का विशेष रूप से विवेचन है।
तृतीय अध्याय में स्वभाववाद की चर्चा है। स्वभाववाद की अवधारणा है"स्वभावाज्जायते सर्वम्" अर्थात् सभी कार्य स्वभाव से उत्पन्न होते हैं। स्वभाववाद के बीज ऋग्वेद में प्राप्त होते हैं। जैनेतर तथा जैनग्रन्थों में प्रतिपादित स्वभाववाद का विशद निरूपण करने के पश्चात् मल्लवादी क्षमाश्रमण, जिनभद्रगणि, हरिभद्रसूरि, अभयदेवसूरि जैसे प्रबुद्ध दार्शनिकों द्वारा कृत निरसन को प्रस्तुत किया गया है। अन्त में जैनदर्शन में मान्य स्वभाव का स्वरूप और उसकी कथंचित् कारणता की दृष्टि से विचार किया गया है।
नियतिवाद नामक चतुर्थ अध्याय में नियतिवाद के प्रणेता मंखलि गोशालक के विस्तृत परिचय के साथ नियति की कारणता को वैदिक, बौद्ध एवं जैनदर्शन के विभिन्न ग्रन्थों के उद्धरणों के आधार पर प्रतिपादित किया गया है। जैनागम सूत्रकृतांग और प्रश्नव्याकरण में नियतिवाद का स्पष्ट उल्लेख सम्प्राप्त होता है तथा आचारांग की टीका एवं नन्दीसूत्र की अवचूरि में भी इसका निरूपण समुपलब्ध है। प्रमुख जैन दार्शनिक
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