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________________ सिद्धसेन सूरि द्वारा रचित 'नियति द्वात्रिंशिका' कृति में नियतिवाद की विविध मान्यताएँ संगुम्फित हैं। भगवान् महावीर ने नियतिवाद की मान्यता को अनुचित ठहराते हुए उपासकदशांग में कहा है - "नियया सव्वभावा, तं ते मिच्छा" सब कार्यों का नियत होना असत्य है। सूत्रकृतांग और उसकी शीलांक टीका, प्रश्नव्याकरण की अभयदेव एवं ज्ञानविमलसूरिकृत टीका, द्वादशारनयचक्र, शास्त्रवार्तासमुच्चय, सन्मतितर्क टीका, धर्मसंग्रहणि और जैनतत्त्वादर्श आदि जैन ग्रन्थों में सबल तर्क से एकान्त नियतिवाद का निरसन हुआ है, जिसे यहाँ संक्षेप में आबद्ध किया गया है। नियति की विभिन्न सिद्धान्तों से तुलना करते हुए "काललब्धि और नियति", "क्रमबद्धपर्याय और नियतिवाद", “सर्वज्ञता और नियतिवाद", "पूर्वकृत कर्म और नियतिवाद" बिन्दुओं के अन्तर्गत जैनदर्शन में नियति की कथंचित् कारणता को स्वीकृत भी किया गया है। पूर्वकृत कर्मवाद विषयक पंचम अध्याय में सुख-दःख के रूप में जीव को स्वकृत कर्मों से प्राप्त होने वाले फल एवं जगत् की विचित्रता के कारणरूप कर्म की विस्तार से चर्चा की गई है। "कम्मवसा खलु जीवा" की उक्ति से कर्म की कारणता जीव में ही प्रतिपादित होती है, अजीव में नहीं। भारतीय दर्शनों में कर्म की सर्वत्र मीमांसा की गई है। न्याय, वैशेषिक और वेदान्त दर्शन ईश्वर को कर्म का फलप्रदाता स्वीकार करते हैं तथा सांख्य, बौद्ध और मीमांसा दर्शन ईश्वर को स्वीकार नहीं करते हैं। जैन दर्शन फल देने की शक्ति को कर्म में ही मानता है। जैन दार्शनिकों ने पंच समवाय का प्रतिपादन करते हुए पूर्वकृत कर्मवाद को तो अंगीकार किया है, किन्तु उसकी एकान्त कारणता का प्रतिषेध भी किया है। मल्लवादी क्षमाश्रमण, हरिभद्रसूरि, यशोविजय, अभयदेवसूरि ने खण्डन में कुछ तर्क प्रस्तुत किये हैं। षष्ठ अध्याय को दो भागों में विभाजित किया गया है। प्रथम भाग पुरुषवाद से सम्बन्धित है, जिसमें प्रसंगत: ब्रह्मवाद एवं ईश्वरवाद का भी विवेचन किया गया है। इनमें एक पुरुष, ब्रह्म या ईश्वर को ही जगदुत्पत्ति का कारण माना जाता है। द्वितीय भाग में पुरुषार्थ की कारणता को विभिन्न कोणों से समझाते हुए पुरुषकार के महत्त्व को प्रकाशित किया गया है। पुरुषवाद के विवेचन में जैनाचार्यों ने पुरुषवाद, ब्रह्मवाद और ईश्वरवाद तीनों का निरूपण कर निरसन किया है। जैनदर्शन पुरुषार्थवादी दर्शन है। पुरुषकार या पुरुषार्थ जैन साधना पद्धति की आत्मा है। संयम में पराक्रम, परीषह-जय, तप से कर्मों की निर्जरा, अप्रमत्तता आदि पर जैन दर्शन में विशेष बल दिया गया है। काल, स्वभाव आदि एकान्त कारणवादों की समीक्षा करते हुए सप्तम अध्याय में नयदृष्टि से इनमें समन्वय स्थापित किया गया है। जैनपरम्परा में काल, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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