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स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ/पुरुष की कथंचित् कारणता को पर्याप्त महत्त्व दिया गया है। वहाँ इनका एकान्त रूप अस्वीकृत है, नयदृष्टि से इन्हें स्वीकृति मिली है। जैन-परम्परा में मान्य कतिपय बिन्दु इसकी पुष्टि करते हैं, यथा -
• सभी द्रव्यों के परिणमन में काल द्रव्य कारण है।
वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व-अपरत्व के रूप में काल की कारणता स्वीकृत है। काल लब्धि, अबाधाकाल आदि की अवधारणा काल की कारणता को स्पष्ट करती है। षड्द्रव्यों के विस्रसा परिणमन में पदार्थ का अपना स्वभाव ही कारण बनता है। जीव का अनादि पारिणामिक भाव, भव्यत्व, अभव्यत्व, जीवत्व आदि के रूप में स्वभाव से ही कार्य करता है। तीर्थकर कर्म प्रकृति को बांधने वाला जीव तीसरे भव में अवश्य तीर्थंकर बनता है, यह भी एक नियति है। अकर्म भूमि में पुरुष-स्त्री के युगलिक का उत्पन्न होना तथा कर्मभूमि में प्रथम तीन आरों में युगलिकों की उत्पत्ति स्वीकार करना काल एवं क्षेत्र की नियति है। अकर्मभूमि में नपुंसक पुरुष का उत्पन्न न होना भी
नियति की मान्यता को इंगित करता है। • पूर्वकृत कर्म जीव के भावी जीवन को नियति की तरह प्रभावित करते हैं। • निकाचित कर्म की मान्यता भी नियति की सूचक है। • जैन दर्शन में अष्टविध कर्मों का प्रतिपादन है। • कर्मों के अनुसार जीव विभिन्न गतियों में जन्म लेता है। • कर्मों के पूर्ण क्षय होने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। • तप, संयम में पराक्रम की प्रेरणा की गई है। • मोक्ष की सिद्धि हेतु पुरुषार्थ को जागरित करने पर बल दिया गया है। • तीर्थंकर ऋषभदेव से महावीर तक के २४ तीर्थंकरों का जीवन एवं
गौतम आदि ग्यारह गणधरों का जीवन पुरुषार्थ को पुष्ट करता है।
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