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पंचसमवाय के क्रमिक विकास की दृष्टि से विचार किया जाय तो यह कहा जा सकता है कि सिद्धसेन (५वीं शती) इस सिद्धान्त के प्रणेता हैं। उन्होंने सन्मतितर्क में ही नहीं, अपितु अपनी दूसरी रचना द्वात्रिंशद्- द्वात्रिंशिका की तृतीय द्वात्रिंशिका के अष्टम श्लोक में भी इन पांचों की कथञ्चित् कारणता अंगीकार की है । हरिभद्रसूरि (८वीं शती) ने शास्त्रवार्तासमुच्चय, बीजविंशिका, उपदेशपद, धर्मबिन्दु नामक ग्रन्थों में यथाप्रसंग पांचों के समन्वय को कार्योत्पादक सिद्ध किया है। शीलांकाचार्य (९-१०वीं शती) ने सूत्रकृतांग की टीका में इन्हें परस्पर सापेक्ष मानकर पांचों में समन्वय स्थापित किया है। अभयदेवसूरि (१० वीं शती) ने सन्मतितर्क की टीका में समन्वय करने से पूर्व विशद रूप से कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, कर्मवाद और पुरुषवाद की ऐकान्तिकता का खण्डन किया है। अमृतचन्द्राचार्य (१०वीं शती) ने प्रवचनसार की टीका के अन्त में ४७ नयों की चर्चा के अन्तर्गत पांचों नयों के रूप में कालादि का निरूपण किया है। मल्लधारी राजशेखर सूरि (१२ - १३वीं शती) ने षड्दर्शनसमुच्चय और उपाध्याय यशोविजय (१७वीं शती) ने नयोपदेश में इस सिद्धान्त का संकेत किया है। सत्रहवीं शती में उपाध्याय विनयविजय ने कालादि पांच कारणों पर गुजराती भाषा में दोहा एवं ढाल के रूप में स्तवन की रचना की है। १९वीं शती में तिलोक ऋषि जी महाराज ने अपने काव्य में 'पंच समवाय' नाम से अभिहित कर कारणपंचक की व्याख्या की है। बीसवीं शती में शतावधानी श्री रत्नचन्द्र जी महाराज ने 'कारण संवाद' नाटक के रूप में पांचों की सापेक्षता को सिद्ध किया है। आधुनिक युग में पं० टोडरमल, कानजी स्वामी, श्री तिलोक ऋषि जी, आचार्य महाप्रज्ञ आदि ने पंचसमवाय सिद्धान्त की पुष्टि की है। सम्प्रति जैन - धर्म के सभी सम्प्रदायों में यह मान्य एवं प्रतिष्ठित है। पं० दलसुख मालवणिया, डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल आदि विद्वानों ने भी इस सिद्धान्त को विश्रुत किया है। वर्तमान में जैन धर्म का कोई भी सम्प्रदाय, आचार्य, संत या विद्वान् ऐसा नहीं है जो पंच समवाय सिद्धान्त को अमान्य घोषित करता हो ।
पांचवीं शती से लेकर अब तक आचार्यों, मनीषियों, विद्वानों द्वारा पंच समवाय सम्बन्धी जो भी लेखन, प्रवचन हुआ है, वह बहुत संक्षेप रूप में हुआ है। कालवाद, स्वभाववाद, कर्मवाद और पुरुषवाद / पुरुषार्थ का जैनेतर दर्शनों में क्या स्वरूप रहा है तथा जैनदर्शन किस रूप में इनकी कथंचित् कारणता स्वीकार करता है, इन विचारों की महती आवश्यकता मेरे निर्देशक आदरणीय प्रो० धर्मचन्द जी जैन को अनुभूत हुई । अतः उनके द्वारा प्रदत्त इस विषय को शिरोधार्य कर मैने अपना शोधकार्य पूर्ण किया।
प्रस्तुत ग्रन्थ " जैन दर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था: एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण" जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर से २००५ में पी-एच० डी० उपाधि के लिए स्वीकृत "जैन दर्शन में कारणवाद के सन्दर्भ में पंचसमवायः
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