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________________ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण अप्रशस्त कारण संसार से संबंधित होते हैं, इन्हें असंयम के आधार पर एक प्रकार का, अज्ञान और अविरति के आधार पर दो प्रकार का तथा मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति के आधार पर तीन प्रकार का निरूपित किया गया है। प्रशस्त भाव कारण को भी इसी प्रकार एकविध, द्विविध और त्रिविध प्रतिपादित किया गया है। एकविध में संयम को द्विविध में ज्ञान - संयम को, तथा त्रिविध में सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और संयम को भाव कारण बताया गया है। यह प्रशस्त भाव कारण मोक्ष में हेतु होता है। भव की कारणता २८ भव का अर्थ होता है- जन्म। जन्म ही जब किसी कार्य में कारण होता है तो उसे भव की कारणता कहा जाता है। यथा - देवगति और नरकगति में वैक्रिय शरीर होना रूप कार्य भव की कारणता से सम्पन्न होता है। इसी प्रकार अवधिज्ञान या विभंगज्ञान देवों और नारकों में देवायु और नरकायु रूप भव की कारणता से प्रकट होता है। जैसा कि कहा है- 'तत्र भवप्रत्ययो नारकदेवानाम् " इसी प्रकार मनुष्य भव में ही मोक्ष मान्य होने से मनुष्य भव मोक्षरूपी कार्य में कारण बनता है । देवगति में सुख और नरकगति में अत्यन्त दुःख में भी भव की कारणता अंगीकार की जा सकती है । तिर्यंच गति में पक्षियों का उड़ना, मछली का तैरना, सर्प का रेंगना, मेंढक का थल - जल में रहना आदि सभी कार्य भव की कारणता सिद्ध करते हैं। यथा'जीव' की कर्म-बंधन क्रिया में जीव द्रव्य स्वयं अंतरंग कारण और कर्म पुद्गल बाह्य कारण होते हैं । किन्तु कई स्थानों पर जीव द्रव्य के लिए पाँचवां 'भव' कारण भी माना गया है। जीव द्रव्य में बंध, उदय, मोक्ष आदि की घटनाएँ होती हैं। इन क्रियाओं में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव कारण होते हैं, यथा- कर्मों के उदय में जीव द्रव्य स्वयं आन्तरिक कारण और उदय में आने वाले कर्म- पुद्गल बाह्य कारण, स्थल आदि का प्रभाव 'क्षेत्र' कारण, काल विशेष में कर्मोदय होना 'काल' कारण, जीव के तत्कालीन कषाय भाव 'भाव' कारण और नरक तिर्यंच- मनुष्य- देव रूपी किसी गति में रहने से 'भव' कारण बनते हैं। निमित्त और उपादान कार्य एक विशिष्ट प्रकार की पर्याय है जो उपादान एवं निमित्त कारणों से प्रकट होती है। कार्य को उपादान कारण की पर्याय कहा जा सकता है, जिसके प्रकट होने में निमित्त सहायभूत होता है। प्रत्येक कार्य कारणपूर्वक ही होता है और कार्य की उत्पादक सामग्री को कारण कहा जाता है। यह उत्पादक सामग्री उपादान और निमित्तों के रूप में दो प्रकार की होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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