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________________ जैनदर्शन में कारणवाद और पंचसमवाय 'उपादीयते अनेन' इस विग्रह के आधार पर 'उप' एवं 'आ' उपसर्गपूर्वक विशिष्ट 'दा' धातु से कर्ता के अर्थ में 'लयुट्' प्रत्यय होकर 'उपादान' शब्द निष्पन्न हुआ है। जिसका अर्थ होता है कि जो कार्य रूप परिणत हो या जिसमें कार्य उत्पन्न हो, वह उपादान है। 'उपादान कारण' कारण समूह में मुख्य होता है। अन्य कारणों की उपस्थिति के बावजूद भी इस मुख्य कारण के बिना कार्य सम्पन्न नहीं होता । जैसे-घट की उत्पत्ति में मिट्टी उपादान कारण है। दण्ड, चक्र, कुम्हार आदि अन्य सभी कारण वर्तमान हों तब भी उपादान कारण के अभाव में घट का निर्माण नहीं हो सकता। सम्पूर्ण कारणों में इसकी मुख्यता प्रकट होने से इसे 'मुख्य कारण' से भी अभिहित किया जाता है। 'निमित्त' शब्द 'नि' उपसर्गपूर्वक स्नेहार्थक 'मिद्' धातु से कर्ता अर्थ में ही 'क्त' प्रत्यय होकर निष्पन्न हुआ है। 'मित्र' शब्द भी मिद् धातु से बनता है । इस प्रकार जो मित्र के समान उपादान का स्नेहन करे अर्थात् उपादान की कार्यपरिणति में मित्र के समान सहयोग प्रदान करे, वह निमित्त है। जैसे- घट की निष्पत्ति में दण्ड, चक्र, कुम्हार आदि निमित्त कारण हैं। ये निमित्त कारण स्वयं घट नहीं बनते, किन्तु घट बनने में मिट्टी रूपी उपादान कारण का सहयोग करते हैं। सहयोगी होने से निमित्त को सहकारी कारण भी कहते हैं। २९ जिस पदार्थ में कार्य निष्पन्न होता है, उस पदार्थ को उपादान कारण और जो कार्य निष्पन्न हुआ है, उसे उपादेय कहा जाता है तथा निमित्त कारण की अपेक्षा कथन करने पर उसी कार्य ( उपादेय) को नैमित्तिक भी कहा जाता है। इस प्रकार एक ही कार्य को उपादान कारण की अपेक्षा उपादेय और निमित्त कारण की अपेक्षा नैमित्तिक कहा गया है। जो घट रूप कार्य मिट्टी रूप उपादानकारण का उपादेय कार्य है, वही घटरूप कार्य कुम्हाररूप निमित्त कारण की अपेक्षा से नैमित्तिक कार्य है। तात्पर्य यह है कि मिट्टी और घट में उपादान - उपादेय संबंध है तथा कुम्हारादि निमित्त कारण और घट में निमित्तनैमित्तिक संबंध है। अतः उपादान - उपादेय संबंध एवं निमित्त - नैमित्तिक संबंध कारण-कार्य संबंध के ही रूप हैं, जो प्रत्येक कारण-कार्य संबंध पर अनिवार्य रूप से घटित होते है। इस प्रकार प्रत्येक कार्य नियम रूप से उपादेय भी है और नैमित्तिक भी है, उपादान की अपेक्षा उपादेय है और निमित्त की अपेक्षा नैमित्तिक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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