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________________ जैनदर्शन में कारणवाद और पंचसमवाय २७ क्षायोपशमिक भावों से ज्ञानावरण आदि कर्मों के आवरण अनावृत होते हैं। मतिज्ञानलब्धि, श्रुतज्ञानलब्धि, अवधिज्ञानलब्धि और मनःपर्यायज्ञान लब्धि तत्तत् ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से एवं चक्षुदर्शनलब्धि, अचक्षुदर्शनलब्धि, अवधिदर्शनलब्धि क्रमश: चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण और अवधिदर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होने के कारण क्षयोपशमनिष्पन्न कार्य है। मिथ्यात्वमोहनीय के क्षयोपशम से सम्यग्दर्शनलब्धि और दानान्तराय कर्म क्षयोपशम से दान-लाभ-भोग-उपभोग और वीर्य लब्धि प्राप्त होती है। पारिणामिक भाव- द्रव्य के मूल स्वभाव का परित्याग न होना और पूर्व अवस्था का विनाश तथा उत्तर अवस्था की उत्पत्ति होते रहना परिणमन-परिणाम है। अर्थात् स्वरूप में स्थित रहकर उत्पन्न तथा नष्ट होना परिणाम है। ऐसे परिणाम को अथवा इस परिणाम से जो भाव निष्पन्न हो उसे पारिणामिक भाव कहते हैं। पारिणामिक भाव के कारण ही जिस द्रव्य का जो स्वभाव है, उसी रूप में उसका परिणमन-परिवर्तन होता है। सान्निपातिक भाव- सण्णिवाइए एतेसिं चेव उदइय उवसमियखाइय-खाओवसमिय परिणामियाणं-भावाणं-दुयसंजोएणं तियसंजोएणं चउक्कसंजोएणं पंचग-संजोएणं जे निप्पज्जति सब्बे से सन्निवाइए जामे।६६ अर्थात् औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन पाँचों भावों के द्विकसंयोग, त्रिकसंयोग, चतुःसंयोग और पंचसंयोग से जो भाव निष्पन्न होते हैं, वे सान्निपातिक भाव है। यह भाव पूर्वोक्त कार्यों में कारण बनता है। अत: पृथक् से विवेचन की आवश्यकता नहीं है। जीव के बंधन और मोक्ष में उसके भावों को ही प्रधान कारण माना गया है। जीव के गति (नरकादि), कषाय, लेश्या आदि औदयिक भाव जहाँ बंध के कारण हैं, वहाँ सम्यक् दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक् चारित्र आदि क्षायिक भाव मोक्ष के हेतु बनते हैं। इस प्रकार भावों की कारणता असंदिग्ध है। पुद्गल में भी इसी प्रकार उसके वर्ण गंध, रस, स्पर्श भावों के अनुरूप प्रशस्त या अप्रशस्त कार्य उत्पन्न होते हुए देखे जाते हैं। जैसे- कोमल एवं स्निग्ध धागों से मुलायम कपड़ा बनता है, इसमें धागे की स्निग्ध और कोमल पर्याय कपड़े के मुलायम होने में कारण है। विशेषावश्यक भाष्य में प्रशस्त एवं अप्रशस्त भाव- विशेषावश्यक भाष्य में भाव कारण को दो प्रकार का निरूपित किया गया है-१. प्रशस्त और २. अप्रशस्त। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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