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________________ जैनदर्शन में कारणवाद और पंचसमवाय २५ कर्मोदय के कारण नरक गति, तिर्यंच गति अर्थात् पशु-पक्षियों की गति, मनुष्य गति एवं देव गति में जाता है। कालचक्र के कारण ही शीतकाल में ठण्ड, ग्रीष्मकाल में गर्मी, वर्षाकाल में वर्षा होती है। उचित काल आने पर ही फूल खिलता है, फल पकता है, पक्षी उड़ता है, मनुष्य जन्मता है, सूर्य उगता है और कमल विकसित एवं संकुचित होते हैं। भाव की कारणता आगम'६ में भाव को पर्याय कहकर दोनों को एकार्थक सिद्ध किया गया है। पूर्वोक्त षड् द्रव्यों की पर्याय ही भाव है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल की क्रमशः गति, स्थिति, अवगाहन एवं वर्तना लक्षण रूप पर्याय हैं जो जीव और पुद्गल के विभिन्न परिणामों में सहायक होती हैं। पुद्गल की वर्ण-गंध-रस और स्पर्श पर्यायें हैं तथा जीव की औदयिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औपशमिक और पारिणामिक ये पाँच भाव पर्यायें हैं। धर्म, अधर्म, आकाश और काल की पर्यायें कार्य में उदासीन कारण होती हैं। प्रत्येक पुद्गल की वर्णादि पर्याय पृथक्-पृथक् होती हैं, अत: उनसे निर्मित अनेक कार्य जगत् की विभिन्नता में दृष्टिगोचर होते हैं। जीव के पंच भाव मोक्ष, बंध आदि कार्यों में निमित्त बनते हैं। कोई भी द्रव्य पर्याय या भाव से रहित नहीं होता, उस द्रव्य की पर्याय प्रतिक्षण परिवर्तनशील होती है। पूर्व पर्याय का विनाश और उत्तर पर्याय का उत्पाद सतत चलता रहता है। फिर भी द्रव्य की ध्रुवता बनी रहती है। वस्तु उत्पाद-व्ययध्रौव्यात्मक होने से त्रयात्मक कही जाती है। यह त्रयात्मकता वस्तु से भिन्न नहीं है, यह तो वस्तु का लक्षण एवं स्वरूप है। जब एक वस्तु किसी कार्य में कारण बनती है तो उसकी पर्याय या उसका भाव भी अवश्य कारण बनता है। पर्याय के बिना तो कारण-कार्य सिद्धान्त ही प्रवृत्त नहीं होता। कोई पर्याय कारण है तो कोई पर्याय कार्य। एक सामान्य नियम है 'कारणगणा हि कार्यगणान् आरभन्ते' अर्थात् कारण के जैसे गुण होते हैं वैसे ही कार्य में आते हैं। तात्पर्य यह है कि कारण के अनुरूप ही कार्य उत्पन्न होता है। बीज जिन कटु आदि पर्यायों से युक्त होता है, वह वैसे ही कटु वृक्ष या फल को उत्पन्न करता है। जीव में घटित होने वाले कार्यों के प्रति 'भाव' कारण बनते हैं, ऐसा अनुयोगद्वारसूत्र में विस्तार से प्रतिपादन हुआ हैछविधे भावे पण्णत्ते ओदइए, उपसमिते, खत्तिते, खाओवसमिते, परिणामिते, सन्निवाइए।५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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