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________________ २४ जैनदर्शन में कारण- कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण है, यथा- काश्मीर में केशर, गुजरात में कपास, आसाम में चाय, राजस्थान में बाजरा, प. बंगाल में चावल की खेती अधिक होती है। घट, पट आदि कोई भी कार्य हो, क्षेत्र की कारणता सबमें निहित है। क्षेत्र की यह कारणता उदासीन निमित्त कारण के रूप में स्वीकार की जा सकती है। क्षेत्र किसी कार्य का उपादान कारण नहीं बनता है, किन्तु सभी कार्यों की उत्पत्ति में उदासीन निमित्त कारण अवश्य बनता है। क्षेत्र को भौगोलिक कारणों के रूप में भी व्याख्यायित किया जा सकता है। विभिन्न कार्यों की उत्पत्ति में भौगोलिक कारण स्पष्टतया अनुभव किए जाते हैं। काल की कारणता 'कलयते असौ इति कालः ' अर्थात् जो निर्माण करता है, वह काल है। यह काल कार्य के निर्माण में सहयोगी बनता है। उत्तराध्ययन सूत्र में काल को परिभाषित करते हुए कहा है 'वट्टणालक्खणो कालो २ जो वर्तन लक्षण वाला है, वह काल है। काल के कारण ही धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य में वर्तन करते हैं अर्थात् बने रहते हैं। तत्त्वार्थसूत्रकार ने 'काल' के कार्य बताते हुए उसे कारण रूप में प्ररूपित किया है 'वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्टा १३ काल द्रव्य के चार उपकार (कार्य) बताए हैं- १. वर्तना २. परिणाम ३. क्रिया ४. परत्व - अपरत्व। वर्तन, परिणमन, क्रिया, ज्येष्ठत्व - कनिष्ठत्व इन कार्यों के प्रति 'काल' उदासीन निमित्त कारण होता है। प्रत्येक द्रव्य अपनी निज शक्ति से पर्याय रूप परिणमन करता है, नई-नई पर्याय धारण करता है और पुरानी पर्याय का त्याग करता है । द्रव्य के इस परिणमन में काल निमित्त कारण बनता है । काल अन्य द्रव्यों के प्रति सदैव उदासीन निमित्त कारण बनता है, उपादान कारण नहीं बन सकता। भगवती सूत्र काल के स्वरूप का प्रतिपादन 'अणंता समया' के रूप में करता है। बृहद् द्रव्यसंग्रह " में भी 'दव्वपरिवट्टरूवो जो सो कालो हवेइ' उक्ति द्वारा काल को द्रव्यों के परिवर्तन में सहायक कारण के रूप में प्रतिपादित किया गया है। ४ काल को द्रव्य के रूप में स्वीकार करने में जैनाचार्यों में मतभेद है, किन्तु इसे सामान्य कारण मानने में कोई आपत्ति नहीं है। काल के प्रभाव से ही जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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