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________________ २३ जैनदर्शन में कारणवाद और पंचसमवाय प्रकार सभी द्रव्य अंतरंग और बहिरंग के रूप में कारण बनते हैं। वे स्वपरिणमन में अंतरंग और अन्य द्रव्यों के परिणमन में बहिरंग निमित्त होते हैं। क्षेत्र की कारणता 'क्षि' निवासगत्योः धातु से उणादिक 'त्र' प्रत्यय होकर 'क्षेत्र' शब्द बनता है। कहीं 'क्ष' धातु से 'ष्ट्रन्' प्रत्यय करके भी 'क्षेत्र' शब्द निष्पन्न किया गया है। 'क्षियन्ति निवसन्ति जीवाजीवाश्च अत्र इति क्षेत्रम् ' जहाँ जीव और अजीव पदार्थ निवास करते हैं उसे 'क्षेत्र' कहते हैं। यह निवास आकाश में किया जाता है इसलिए क्षेत्र को भी आकाश कहा गया है। 'खित्तं खलु आगासं' इस वचन से तथा विशेषावश्यक भाष्य की मल्लधारी हेमचन्द्रकृत वृत्ति के वाक्य 'तच्चाकाशं सर्वार्थवेदिनां मतम्' से भी पुष्ट होता है कि आकाश ही क्षेत्र है। विशेषावश्यक भाष्य में स्पष्ट कथन है खेत्तं मयमागासं सव्वदव्वावगाहणलिंगं । तं दव्वं चेव निवासमेतपज्जायओ खेत्तं । । " ५१ सभी द्रव्यों को अवगाहन या स्थान देने के कारण आकाश को ही क्षेत्र माना गया है। वह आकाशद्रव्य ही निवासमात्र पर्याय से क्षेत्र कहा जाता है । उपाधिभेद से इस क्षेत्र के अनेक प्रकार होते हैं। जहाँ कोई पदार्थ रहता है वही उसका क्षेत्र कहलाता है । उदाहरण के लिए जिस एक प्रदेश में परमाणु रहता है वह एक प्रदेश उस परमाणु का क्षेत्र कहलाता है। इसी प्रकार अन्य द्रव्यों एवं पदार्थों का क्षेत्र भी समझना चाहिए। धर्म-अधर्म आदि द्रव्य जहाँ रहते हैं, वह उनका क्षेत्र होता है। इसका तात्पर्य यह है कि जो द्रव्य या पदार्थ जितना स्थान घेरता है, उसका उतना क्षेत्र होता है। विश्व का कोई भी कार्य हो, उसमें क्षेत्र आवश्यक रूप से कारण होता है। बिना क्षेत्र के कोई कार्य सम्पन्न नहीं होता। क्षेत्र सभी कार्यों का सामान्य कारण होता है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और काल ये सभी द्रव्य क्षेत्र (आकाश) में ही रहते हैं। इस प्रकार सभी द्रव्यों के पर्याय- परिणमन रूप कार्य में क्षेत्र की कारणता स्वतः सिद्ध है। 'क्षेत्र' शब्द का प्रयोग मूलतः आकाश के लिए हुआ है किन्तु उपचार से जनपद, नगर, ग्राम आदि को भी क्षेत्र कहा गया है। इसी प्रकार आकाश से सम्बद्ध पृथ्वी या भूमि को भी क्षेत्र कहा जाता है। इसी क्षेत्र के लिए लोक भाषा में 'खेत' शब्द प्रयुक्त हुआ है। विशिष्ट खेत या क्षेत्र की कारणता कृषि कार्य की विशिष्टता को सिद्ध करती है। इसीलिए अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग प्रकार की खेती देखी जाती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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