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जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में द्रव्यादि कारण की पुष्टि निम्न प्रकार से की
गयी है
कालाइलद्धिजुत्ता णाणासत्तीहि संजुदा अत्था । परिणममाणा हि सयं ण सक्कदे को वि वारेदुं । ।"
अर्थात् काल आदि लब्धियों से युक्त तथा नानाशक्तियों वाले पदार्थों को स्वयं परिणमन करते हुए कौन रोक सकता है?
शुभचन्द्राचार्य ने 'कालाई' पर टीका करते हुए कहा है'कालादिलब्धियुक्ताः कालद्रव्य क्षेत्रभवभावादिसामग्री प्राप्ता । ' वे पदार्थ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव रूप सामग्री के प्राप्त होने पर स्वयं परिणमन करते हैं, उन्हें उससे कोई नहीं रोक सकता । जैसे- भव्यत्व आदि शक्ति से युक्त जीव काललब्धि के प्राप्त होने पर मुक्त हो जाते हैं। भातरूप होने की शक्ति से युक्त चावल, ईंधन, आग, बटलोही, जल आदि सामग्री के मिलने पर भावरूप हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में जीव को मुक्त होने से और चावलों को भातरूप होने से कौन रोक सकता है।
राजवार्तिक, प्रवचनसार, सर्वार्थसिद्धि में कर्मोदय में द्रव्य, क्षेत्र आदि को निमित्त माना गया है।
यहाँ द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव एवं भव की कारणता पर संक्षेप में प्रकाश डाला जा रहा है
द्रव्य की कारणता
जैन दर्शन में द्रव्य को सत्ता लक्षण वाला कहा गया है अर्थात् जो सत् है अथवा जो उत्पाद-व्यय-१ - ध्रौव्य से संयुक्त है अथवा जो गुण और पर्यायों का आधार है, वह द्रव्य है। ऐसा पंचास्तिकाय में प्रतिपादित है -
दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्ययधुवत्तसंजुत्तं । गुणणज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वणदू ।।
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द्रव्य छः प्रकार के हैं- धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश द्रव्य, काल द्रव्य, जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य । ये छ: ही द्रव्य परस्पर कारण बनते हैं। प्रत्येक द्रव्य स्वपरिणमन में उपादान कारण होते हैं। धर्म, अधर्म, आकाश और काल जीव-अजीव के कार्य में उदासीन कारण, पुद्गल एवं जीव द्रव्य अन्य जीव के प्रति निमित्त कारण तथा जीव-कार्य एवं अन्य पुद्गल के प्रति पुद्गल द्रव्य निमित्त कारण होते हैं।° इस
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