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उपसंहार ६३३ १. सभी द्रव्यों के परिणमन में काल द्रव्य कारण है। २. व्यवहार में काल की कारणता अनेक कार्यों में अंगीकृत है। ३. काल बहिरंग कारण है। ४. वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व-अपरत्व के रूप में काल की कारणता
स्वीकृत है। ५. जैन दर्शन में काललब्धि की अवधारणा है जो काल की कारणता को सिद्ध
करती है। ६. कर्म-सिद्धान्त में अबाधाकाल की अवधारणा भी काल की कारणता को
स्पष्ट करती है।
स्वभाव की कारणता भी जैन दर्शन में मान्य है। उसकी सिद्धि में कतिपय बिन्दु इस प्रकार हैं
१. षड्द्रव्यों का अपना स्वभाव है तथा वे उसके अनुसार ही कार्य करते हैं। २. विनसा परिणमन में पदार्थ का अपना स्वभाव ही कारण बनता है। ३. जीव का अनादि पारिणामिक भाव, भव्यत्व, अभव्यत्व, जीवत्व आदि के
रूप में स्वभाव से ही कार्य करता है। ४. ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मों का अपना स्वभाव है, उसी अनुसार वे जीव के
ज्ञान को आवृत्त करने आदि का कार्य करते हैं। जैन दर्शन में नियति की कारणता भी स्वीकृत है, यथाजैन धर्म में कालचक्र का नियत क्रम स्वीकार किया गया है जो उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी इन दो भागों में विभक्त है। दोनों में ६-६ आरक माने
गए हैं। . २. २४ तीर्थकरों, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव, ९ प्रतिवासुदेव आदि
की निश्चित मान्यता जैन धर्म में नियति के प्रवेश की सूचक है। ३. तीर्थकर कर्म प्रकृति को बाँधने वाला जीव तीसरे भव में अवश्य तीर्थकर
बनता है, यह भी एक नियति है। ४. २४ तीर्थंकरों में एक तीर्थकर के निर्वाण तथा दूसरे तीर्थकर के बीच का
जो अन्तर है वह प्रत्येक चौबीसी में उसी प्रकार रहता है।
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