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________________ ६३२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण ii. जगत् का निर्माण न एक ईश्वर के द्वारा संभव है और न अनेक ईश्वर के द्वारा। ईश्वर को सर्वज्ञ नहीं माना जा सकता क्योंकि इसमें वेद से विरोध आता है। वह जगत् की रचना में जीवों को उनके कर्मानुसार फल देने के कारण स्वतंत्र भी नहीं है। पुरुषकार अथवा पुरुषार्थ की चर्चा इस अध्याय का महत्त्वपूर्ण प्रतिपाद्य है, क्योंकि उत्तरकालीन जैनाचार्यों ने पंचसमवाय में कालादि के साथ इसी को स्थान दिया है। पुरुषकार या पुरुषार्थ जैन साधना पद्धति की आत्मा है। पूर्वबद्ध कर्मों के क्षय एवं नवीन कर्मों के निरोध के लिए आत्मपुरुषार्थ की महत्ता जैन वाङ्मय में पदे-पदे प्रतिपादित है। प्रत्येक आत्मा को स्वतंत्र मानने वाला जैन दर्शन पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ की अवधारणा पर टिका हुआ है। सम्यक्त्व की प्राप्ति हो या गणश्रेणि पर आरोहण जीव के शुभ परिणामों की महत्ता सर्वत्र स्थापित है। भारतीय संस्कृति में प्रतिपादित धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामक चार पुरुषार्थों में से जैन दर्शन में धर्म एवं मोक्ष पुरुषार्थ की विशेष प्रतिष्ठा है। इनमें भी धर्म पुरुषार्थ पर विशेषतः ध्यान केन्द्रित किया है क्योंकि मोक्ष की प्राप्ति उसी से संभव है। जैन ग्रन्थों में अर्थ और काम पुरुषार्थ को मुक्ति की साधना में कोई महत्त्व नहीं दिया गया है, किन्तु व्यावहारिक जीवन के लिए उनका भी आचरण धर्मपूर्वक करना उपादेय स्वीकार किया गया है। सप्तम अध्याय 'जैनदर्शन की नयदृष्टि और पंचसमवाय' इस शोधप्रबन्ध का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अध्याय है। जैनदर्शन की अनेकान्तवादी नय दृष्टि का ही परिणाम है कि इसमें पंच कारण समवाय सिद्धान्त को स्थान मिला। सिद्धसेन दिवाकर ने काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुष/पुरुषकार में से एक-एक की कारणता को मिथ्यात्व तथा सबके सामासिक या समन्वित स्वरूप को सम्यक्त्व कहा। उनके अनन्तर हरिभद्रसूरि, शीलांकाचार्य, अभयदेवसूरि, यशोविजय, मल्लधारी राजशेखरसूरि, उपाध्याय विनयविजय आदि ने पंच समवाय के प्रतिष्ठापन में अपना योगदान दिया। उनके अनन्तर तिलोकऋषि जी, शतावधानी रत्नचन्द्र जी महाराज, कानजी स्वामी आदि ने भी पंच समवाय को प्रतिष्ठित करने में अपनी भूमिका का निर्वाह किया। इसमें संदेह नहीं कि जैन दर्शन में काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ की कारणता अंगीकृत है। इनमें एक-एक को प्रधान बनाकर भी कारणता का प्रतिपादन संभव है। जैन दर्शन में काल की कारणता विभिन्न आधारों पर सिद्ध होती है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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