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उपसंहार ६३१ ईश्वरवाद के निरसन में शीलांकाचार्य (९-१०वीं शती) अभयदेवसूरि (१०वीं शती), प्रभाचन्द्राचार्य (११वीं शती) और मल्लिषेणसूरि (१२९३ ई.) ने अनेक तर्क दिए हैं। सांख्यतत्त्वकौमुदीकार वाचस्पति मिश्र ने भी ईश्वरवाद का खण्डन किया है।
सूत्रकृतांग के टीकाकार शीलांकाचार्य ने ईश्वरवादियों से प्रश्न किया है कि ईश्वर स्वत: ही दूसरों को उनकी क्रियाओं में प्रवृत्त करता है या दूसरों के द्वारा प्रेरित होकर? यदि वह स्वत: दूसरों को अपनी क्रियाओं में प्रवृत्त करता है तो दूसरे भी उसी प्रकार स्वत: अपनी क्रियाओं में प्रवृत्त हो जायेंगे। बीच में ईश्वर की परिकल्पना करने से क्या लाभ? यदि ईश्वर दूसरे के द्वारा प्रेरित होकर क्रियाओं का प्रवर्तक होता है तो वह दूसरा भी किसी अन्य से प्रेरित होगा और इस प्रकार अनवस्था दोष उत्पन्न हो जाएगा। जीव के प्राक्तन शुभाशुभ कर्मों के फल प्रदाता के रूप में ईश्वर को मानने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि कर्मों की अनादि हेतु परम्परा से फल प्राप्ति स्वत: हो जायेगी। जगत् की विचित्रता से ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती। ईश्वर जब एक ही है तो समस्त जगत् का उससे एकत्व हो जाएगा। फिर कौन किसके द्वारा प्रतिपादित किया जायेगा?
अभयदेवसूरि ने सन्मति तर्क की टीका में पुरुषवाद के खण्डन में जो तर्क दिए हैं उन्हीं से ईश्वरवाद का भी खण्डन हो जाता है, यथा- १. जीवों पर अनुग्रह के लिए सृष्टि की रचना युक्तिसंगत नहीं। २. ईश्वर के द्वारा जगत् की उत्पत्ति न युगपत् हो सकती है और न क्रम से। ३. क्रीड़ा मात्र को ही जगत् की उत्पत्ति में कारण नहीं माना जा सकता। प्रभाचन्द्राचार्य ने ईश्वरवादियों के तर्क एवं प्रतितकों को उपस्थित कर उनका युक्तिसंगत प्रत्यवस्थान किया है।
__ मल्लिषेण सूरि ने स्याद्वादमंजरी में ईश्वर की जगत् कर्तृता का व्यवस्थित निरसन किया है। उनके कतिपय तर्क इस प्रकार हैं
i. ईश्वर ने शरीर धारण करके जगत् को बनाया है तो वह दृश्य था या
अदृश्य? यदि वह शरीर हमारे शरीर की तरह दृश्य था तो इसमें प्रत्यक्ष से बाधा आती है। यदि वह माहात्म्य विशेष के कारण अदृश्य शरीर वाला है तो इसमें इतरेतराश्रय दोष आता है। क्योंकि माहात्म्य विशेष के सिद्ध होने पर अदृश्य शरीर सिद्ध होगा और अदृश्य शरीर सिद्ध होने पर माहात्म्य विशेष सिद्ध होगा।
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