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________________ ६३४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण अकर्म भूमि में पुरुष-स्त्री के युगलिक का उत्पन्न होना तथा कर्मभूमि में प्रथम तीन आरों में युगलिकों की उत्पत्ति स्वीकार करना, काल एवं क्षेत्र की नियति है। अकर्म भूमि में नपुंसक पुरुष का उत्पन्न न होना भी नियति की मान्यता को इंगित करता है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के अनुसार जम्बूद्वीप में कम से कम चार और अधिक से अधिक ३४ तीर्थकरों के होने का कथन तथा कम से कम ४ और अधिक से अधिक ३० चक्रवर्ती होने का कथन भी नियति को सिद्ध करता है। ७. सिद्धों में पूर्वभव के आश्रित, क्षेत्राश्रित, अवगाहना आश्रित अनेक तथ्य ऐसे हैं, जो जैन धर्म में नियति की कारणता को पुष्ट करते हैं। जैन कर्म सिद्धान्त में भी अनेक ऐसे निश्चित नियम है जो नियति को पुष्ट करते हैं। योग और कषाय के होने पर कर्म पुद्गल का आत्मा के साथ चिपकना नियत है। विभिन्न गतियों में जीवों की उत्कृष्ट आयु नियत है। पूर्वकृत कर्म जीव के भावी जीवन को नियति की तरह प्रभावित करते हैं। __ अनपवर्त्य आयुष्य वाले जीव आयुष्य की पूर्ण अवधि भोगकर ही मरण को प्राप्त होते हैं, यह नियति है। निकाचित कर्म की मान्यता भी नियति की सूचक है। १२. वर्तमान में यह मान्यता है कि जम्बूस्वामी के मोक्ष जाने के पश्चात् केवलज्ञान सहित १० बातों का विच्छेद हो गया है। इसमें नियति कारण १३. यह भी नियत है कि कोई जीव एक बार सम्यक्त्व प्राप्ति कर ले तो वह जीव अधिकतम १५ भव में अवश्य मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। पूर्वकृत कर्म की कारणता जैन दर्शन का प्रमुख एवं केन्द्रिय सिद्धान्त है। जैन वाङ्मय में कर्म सिद्धान्त का व्यवस्थित एवं विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। जैनदर्शन में कर्मवाद के महत्त्व पर पहले ही प्रकाश डाला जा चुका है। जैन दर्शन में पुरुष/पुरुषकार की कारणता पर पूरा बल दिया गया है। सिद्धसेन सूरि ने पाँच कारणों में 'पुरुष' शब्द का प्रयोग किया है, पुरुषकार या पुरुषार्थ इसी का विकसित रूप है। आत्मा को अपने कार्यों या कर्मों का कर्ता मानने के आधार पर जैन दर्शन में पुरुष की कारणता स्वीकार की जा सकती है तथा जीव के द्वारा किए गए प्रयत्नों को पुरुषकार या पुरुषार्थ की संज्ञा दी जा सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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